॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय को अंग*
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*खसम पर्यौ जोरू के पीछै,*
*कह्यौ न मांनैं भौंडी रांड ।*
*जित तित फिरै भटकती यौंही,*
*तैं तौ किये जगत मैं भांड ॥*
*तौ हू भूख न भागी तेरी,*
*तूं गिलि बैठी साड़ी मांड ।*
*सुन्दर कहै सीख सुनि मेरी,*
*अब तूं घर घर फिरबौ छांड ॥२७॥*
*खसम पर्यौ जोरू कै पीछै* : यह हीन कोटि का पति रूप जीव विषयवासना एवं बाह्य वृत्ति रूप अपनी स्त्री के पीछे लगा हुआ है कि दुष्ट राँड ! तूँ मेरा कहा नहीं मानती ।
*जित तित फिरै भटकती यों ही* :(मैं कहता हूँ) तूँ, तो भी निरुद्देश्य होकर निरन्तर इधर उधर घूमती है । तूँ ने समस्त जगत् में नाच कर देख लिया है ।
*तौ हूँ भूख न भागी तेरी* : तो भी तेरी भूख(विषयवासना) पूर्ण नहिं हुई ! तूँ अब तक समस्त भोगों का रस चूस चुकी है ।
*सुन्दर कहै सीख सुनि मेरी* : *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - अब तो तूँ मेरी शिक्षा मान ले, अब तूँ घर घर(विविध इन्द्रियों तथा वासनाओं की ओर) दौड़ना छोड़ दे ॥२७॥
(क्रमशः)
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