मंगलवार, 31 मार्च 2015

२२. विपर्यय को अंग ~ २७



॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२२. विपर्यय को अंग*
*खसम पर्यौ जोरू के पीछै,*
*कह्यौ न मांनैं भौंडी रांड ।* 
*जित तित फिरै भटकती यौंही,*
*तैं तौ किये जगत मैं भांड ॥* 
*तौ हू भूख न भागी तेरी,*
*तूं गिलि बैठी साड़ी मांड ।* 
*सुन्दर कहै सीख सुनि मेरी,*
*अब तूं घर घर फिरबौ छांड ॥२७॥* 
*खसम पर्यौ जोरू कै पीछै* : यह हीन कोटि का पति रूप जीव विषयवासना एवं बाह्य वृत्ति रूप अपनी स्त्री के पीछे लगा हुआ है कि दुष्ट राँड ! तूँ मेरा कहा नहीं मानती । 
*जित तित फिरै भटकती यों ही* :(मैं कहता हूँ) तूँ, तो भी निरुद्देश्य होकर निरन्तर इधर उधर घूमती है । तूँ ने समस्त जगत् में नाच कर देख लिया है ।
*तौ हूँ भूख न भागी तेरी* : तो भी तेरी भूख(विषयवासना) पूर्ण नहिं हुई ! तूँ अब तक समस्त भोगों का रस चूस चुकी है । 
*सुन्दर कहै सीख सुनि मेरी* : *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - अब तो तूँ मेरी शिक्षा मान ले, अब तूँ घर घर(विविध इन्द्रियों तथा वासनाओं की ओर) दौड़ना छोड़ दे ॥२७॥ 
(क्रमशः)

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