मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

*= शिष्य बखनाजी =*

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= दशम विन्दु =*
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*= शिष्य बखनाजी =*
तब दादूजी ने कहा -
*हो ऐसा ज्ञान ध्यान, गुरु बिना क्यों पावे ।*
*बार पार पार बार, दुस्तर तिर आवे हो ॥टेक॥*
*भवन गवन गवन भवन, मन हीं मन लावे ।*
*रवन छवन छवन रवन, सद्गुरु समझावे हो ॥१॥*
*क्षीर नीर नीर क्षीर, प्रेम भक्ति भावे ।*
*प्राण कमल विकस विकस, गोविन्द गुण गावे हो ॥२॥*
*ज्योति युगति बाट घाट, लै समाधि ध्यावे ।*
*परम नूर परम तेज, दादू दिखलावे हो ॥३॥*
https://youtu.be/O3chggNLrIk
अर्थ: - हे भाई ! सद्गुरु बिना ऐसा ध्यान और ज्ञान कैसे प्राप्त हो सकता है ? जिसके द्वारा साधक दुस्तर संसार के इस विषयासक्ति रूप तट से तैर कर निरासक्ति रूप अगले तट पर आ पहुंचे और विषय - भवन में गमन करने वाली मन वृत्ति को मन ही मन में ध्यान तथा ज्ञान विचार करके परब्रह्म में लगा सके तथा वृत्ति भी सब विश्व के निवास स्थान ब्रह्म - भवन में गमन कर सके और स्थिर रहकर, विषयों में रमण करना छोड़ दे तथा स्थिरता पूर्वक ब्रह्म में ही रमण करे ।
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ऐसा ध्यान तथा ज्ञान तो सद्गुरु ही समझा सकते हैं । जैसे दूध में जल और जल में दूध एक हो जाता है, वैसे ही आत्मा परमात्मा में एक होने का निश्चय होने पर भी प्रेमाभक्ति प्रिय लगे तथा प्राणी का हृदय कमल आनन्द से बारंबार खिलता रहे और वह गोविन्द गुणगान करता रहे । योग युक्ति द्वारा ब्रह्म - ज्योति के साक्षात्कारार्थ अन्तर्मुख वृत्ति रूप मार्ग से समाधि - घाट पर पहुँचा सके तथा परम तेज रूप अपने परमस्वरूप को दिखा सके ऐसा ध्यान - ज्ञान सद्गुरु बिना नहीं मिलता ।
(क्रमशः)

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