मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

 
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
१८८. मन प्रति सूरातन । त्रिताल ~ 
हरि मारग मस्तक दीजिये, तब निकट परम पद लीजिये ॥ टेक ॥
इस मारग मांहीं मरणा, तिल पीछे पाँव न धरणा । 
अब आगे होई सो होई, पीछे सोच न करणा कोई ॥ १ ॥ 
ज्यों शूरा रण झूझै, तब आपा पर नहिं बूझै । 
सिर साहिब काज संवारै, घण घावां आपा डारै ॥ २ ॥ 
सती सत गहि साचा बोलै, मन निश्‍चल कदे न डोलै । 
वाके सोच पोच जिय ना आवै, जग देखत आप जलावै ॥ ३ ॥ 
इस सिर सौं साटा कीजे, तब अविनाशी पद लीजे । 
ताका सब सिर साबित होवे, जब दादू आपा खोवे ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें मन प्रति शूरातन का उपदेश करते हैं कि हे मन ! परमेश्‍वर की प्राप्ति रूप मार्ग में, अपना आपा अभिमान रूपी मस्तक जब तूँ परमेश्‍वर के अर्पण करेगा, तो तेरे को निकट ही कहिए अन्तःकरण में ही परम पद प्राप्त होगा । हरि प्राप्ति रूप मार्ग में विषय - वासनाओं की तरफ से मर कर चलना । फिर एक पल भी विषयों का मनोरथ नहीं करना । जो कुछ परमार्थ मार्ग में आगे चलते - चलते होगा, सो होता रहेगा । फिर पीछे कुल - कुटम्ब आदि का सोच नहीं करना । जैसे शूरवीर रणभूमि में जाता है, फिर पीछे कुटम्ब का सोच नहीं करता । न मरने से ही डरता है । अपने - पराये का कुछ भी सोच नहीं करता । अपना सिर देकर भी मालिक का काम सँवारता है । हथियारों का शरीर पर घाव खाकर भी अपने उद्देश्य को पूरा करके अपने स्वामी का प्रिय बन जाता है । जिस प्रकार सती सत्य को धारण करके, मुँह से सत्य उपदेश करती हुई अपने पति को गोदी में लेकर चिता में बैठ जाती है और मन पति के ध्यान में निश्‍चल रहता है । अग्नि के भय से किंचित् भी चलायमान नहीं होता । उस सती के मन में न तो कायरता आती है, न पीछे का सोच ही करती है । जगत् के देखते - देखते, अपने शरीर को, पति के शव के साथ जलाकर, पति - लोक को प्राप्त हो जाती है । हे मन ! इसी प्रकार तूँ अपने अहंकार रूपी मस्तक को परमेश्‍वर के अर्पण करके अविनाशी पद को प्राप्त कर ले । इस प्रकार जब जिज्ञासु अपने मन का आपा अभिमान रूपी मस्तक परमात्मा के समर्पित करता है, तब उसका सिर प्रमाणित हो जाता है अर्थात् सार्थक होता है ।

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