शुक्रवार, 10 अप्रैल 2015

२३. आपुने भाव को अंग ~ ५


#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२३. आपुने भाव को अंग* 
*याही औ तौ भाव याकौं शंक उपजावत है,*
*याही कौ तौ भाव याही निशंक करतु है ।*
*याही कौ तौ भाव याकौं भूत प्रेम होइ लागौ,*
*याही कौ तौ भाव याकी कुमति हरतु है ॥*
*याही कौ तौ भाव याकौं वायु को बघूरा करै ।*
*याही कौ तौ भाव याही थिर कैं धरतु है ।*
*याही कौ तौ भाव याकौं धार में बहाइ देत,*
*याही कौ तौ भाव याही लै तरतू है ॥५॥*
*आत्मभाव ही कभी द्वैत, कभी अद्वैत* : इसका आत्मभाव ही कभी द्वैत भ्रान्ति उत्पन्न करता है, और कभी वही गुरु उपदेश के प्रभाव से अद्वैतावस्थापन्न हो जाता है ।
कभी यह भूत प्रेतों के अन्धविश्वास में पड़ जाता है और कभी इसकी यह कुमति दूर होकर इसे सद्बुद्धि आ जाती है । 
कभी यह आत्मभाव ही वात्याचक्र के समान सब को घुमाता है, कभी यह आत्मभाव समस्त संसार को स्थिर समझने लगता है ।
कभी यह आत्मभाव अज्ञ प्राणी को संसार सनुद्र में बहा देता है, *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - कभी यह आत्मभाव किसी(ज्ञानी) को संसार सागर से तार देता है । 
(क्रमशः)

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