#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२३. आपुने भाव को अंग*
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*आपुनै भाव तैं सूर सौ दीसत,*
*आपुनै भाव तैं चंद्र सौ भासै ।*
*आपुनै भाव तैं तार अनंत जु,*
*आपुनै भाव तैं वीजु उजासै ॥*
*आपुनै भाव तैं नूर है तेज है,*
*आपुनै भाव तैं जोति प्रकाशे ।*
*तैसौ हि ताहि दिखावत सुन्दर,*
*जैसौ हि होत है जाहि कौ आसै ॥८॥*
अपने ही विचार के कारण कभी वह सूर्य के समान तेजस्वी दिखायी देता है और कभी चन्द्रमा के समान शीतल ।
अपने ही विचार से कभी वह तारागण के समान अनन्त दिखायी देता है, कभी बिजली के समान क्षणिक प्रकाशवान् ।
कभी वह नूर(क्रान्ति) तथा कभी वह तेज और कभी वह ज्योति के समान न्यूनाधिक प्रकाशवाला दीखता है ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - जिस के मन की जैसी वासना होगी वैसा ही यह जगत् उसको दिखायी देता है ॥८॥
(क्रमशः)
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