सोमवार, 13 अप्रैल 2015

२३. आपुने भाव को अंग ~ ८


#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२३. आपुने भाव को अंग* 
*आपुनै भाव तैं सूर सौ दीसत,* 
*आपुनै भाव तैं चंद्र सौ भासै ।* 
*आपुनै भाव तैं तार अनंत जु,* 
*आपुनै भाव तैं वीजु उजासै ॥* 
*आपुनै भाव तैं नूर है तेज है,* 
*आपुनै भाव तैं जोति प्रकाशे ।* 
*तैसौ हि ताहि दिखावत सुन्दर,* 
*जैसौ हि होत है जाहि कौ आसै ॥८॥* 
अपने ही विचार के कारण कभी वह सूर्य के समान तेजस्वी दिखायी देता है और कभी चन्द्रमा के समान शीतल । 
अपने ही विचार से कभी वह तारागण के समान अनन्त दिखायी देता है, कभी बिजली के समान क्षणिक प्रकाशवान् । 
कभी वह नूर(क्रान्ति) तथा कभी वह तेज और कभी वह ज्योति के समान न्यूनाधिक प्रकाशवाला दीखता है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - जिस के मन की जैसी वासना होगी वैसा ही यह जगत् उसको दिखायी देता है ॥८॥ 
(क्रमशः)

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