#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग*
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*दीन हीन छीन सौ व्है जात छिन छिन मांहि,*
*देह के संजौग पराधीन सौ रहतु है ।*
*शीत लगै घांम लगै भूख लगै प्यास लगै,*
*शोक मोह मांनि अति खेद कौं लहतु है ॥*
*अंध भयौ पंगु भयौ मूक हौं बघिर भयौ,*
*अैसौ मांनि मांनि भ्रम नदी मैं बहुत है ।*
*सुन्दर अधिक मोहि याही तैं अचंभौ आहि,*
*भूलि कैं स्वरूप कौं अनाथ सौ कहतु है ॥१२॥*
यह आत्मा इस देह के संयोग के कारण, दीन हीन एवं क्षीण के समान होकर क्षण क्षण में, पराधीन के तुल्य बन जाता है ।
जब भी यह सर्दी गर्मी, भूख प्यास, शोक मोह आदि द्वंदों में फँसता है तो अपने को दुःखी अनुभव करता है ।
यह अपने को अंधा, लूला, लँगड़ा, गूँगा, बहरा मानकर भ्रम के महानद में पड़ जाता है ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - मुझको यही आश्चर्य होता है कि यह आत्मा अपना वास्तविक स्वतंत्र रूप भूल कर क्यों स्वयं को अनाथवत् समझ रहा है ॥१२॥
(क्रमशः)
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