बुधवार, 29 अप्रैल 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ १२


#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
*दीन हीन छीन सौ व्है जात छिन छिन मांहि,* 
*देह के संजौग पराधीन सौ रहतु है ।* 
*शीत लगै घांम लगै भूख लगै प्यास लगै,* 
*शोक मोह मांनि अति खेद कौं लहतु है ॥* 
*अंध भयौ पंगु भयौ मूक हौं बघिर भयौ,* 
*अैसौ मांनि मांनि भ्रम नदी मैं बहुत है ।* 
*सुन्दर अधिक मोहि याही तैं अचंभौ आहि,* 
*भूलि कैं स्वरूप कौं अनाथ सौ कहतु है ॥१२॥* 
यह आत्मा इस देह के संयोग के कारण, दीन हीन एवं क्षीण के समान होकर क्षण क्षण में, पराधीन के तुल्य बन जाता है । 
जब भी यह सर्दी गर्मी, भूख प्यास, शोक मोह आदि द्वंदों में फँसता है तो अपने को दुःखी अनुभव करता है । 
यह अपने को अंधा, लूला, लँगड़ा, गूँगा, बहरा मानकर भ्रम के महानद में पड़ जाता है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - मुझको यही आश्चर्य होता है कि यह आत्मा अपना वास्तविक स्वतंत्र रूप भूल कर क्यों स्वयं को अनाथवत् समझ रहा है ॥१२॥ 
(क्रमशः)

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