मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

२३. आपुने भाव को अंग ~ २


॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२३. आपुने भाव को अंग* 
*मनहर छन्द -* 
*जैसैं स्वान कांच कै सदन मधि देखि और,* 
*भूँकि भूँकि मरत करत अभिमानं जू ।* 
*जैसैं गज फटिक शिला सौं अड़ि तौरै दंत,* 
*जैसैं सिंघ कूप मांहि उझकि भुलांन जू ॥* 
*जैसैं कोऊ फेरि खात फिरत देखै जगत,* 
*तैसें ही सुन्दर सब तेरौ ई अज्ञानं जू ।* 
*आपु ही कौ भ्रम सु तौ दूसरौ दिखाई देत,* 
*आपु कौ बिचारौ कोऊ दूसरौ न आंन जू ॥२॥* 
जैसे कोई कुत्ता किसी दर्पण लगे भवन में चला जाय, वहाँ लगे दर्पण में अपनी आकृति देखकर, उसे अन्य कुत्ता समझते हुए, भोंक भोंक कर अपना अभिमान प्रकट करे । 
जैसे कोई हाथी श्वेत स्फटिक शिला को अपने श्वेत दाँतों का प्रतिस्पर्धा मान कर उसे टक्कर मारता हुआ अपने दाँत तुड़ा बैठे । या कोई सिंह किसी कूए में अपनी ही आकृति देख कर उसे दूसरा समझता हुआ उस कुए में छलांग लगा दे । 
जैसे कोई हिंडौल में चक्कर खाता हुआ संसार को घूमता हुआ माने । *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - रे प्राणी ! इसी प्रकार जगत् के विषय में तेरा यह सब भ्रम ही है । अतः तूँ अपने आत्मभाव पर ही विचार कर; क्योंकि जगत में तेरे अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है ॥२॥ 
(क्रमशः)

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