॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
१८७. हितोपदेश । शूलताल ~
सन्मुख भइला रे, तब दुख गइला रे, ते मेरे प्राण अधारी ।
निराकार निरंजन देवा रे, लेवा तेह विचारी ॥ टेक ॥
अपरम्पार परम निज सोई, अलख तोर विस्तारं ।
अंकुर बीजे सहज समाना रे, ऐसा समर्थ सारं ॥ १ ॥
जे तैं किन्हा किन्हि इक चीन्हा रे, भइला ते परिमाणं ।
अविगत तोरी विगति न जाणूं , मैं मूरख अयानं ॥ २ ॥
सहजैं तोरा ए मन मोरा, साधन सौं रंग आई ।
दादू तोरी गति नहिं जानैं, निर्वाहो कर लाई ॥ ३ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें तर्कपूर्वक चेतावनी कर रहे हैं कि हे मन ! उस परम पिता परमेश्वर के जब तूँ सन्मुख होगा, तब तेरे सम्पूर्ण दुःख निवृत्त हो जायेंगे । वह परमेश्वर हमारे प्राणों के आधार हैं । वह निराकार निरंजन, माया अंजन रहित, दिव्य स्वरूप देव हैं, उनका विचारपूर्वक नाम स्मरण कर ।
हे अपरम्पार ! आप परम निज आत्म - स्वरूप ही हो । हे अलख ! मन वाणी के अविषय - यह सब विस्तार आपका ही फैलाया हुआ है । जैसे बीज में अंकुर, अंकुर में बीज, वैसे ही आपके सहज - स्वरूप में सब समाये हुए हैं । ऐसे आप समर्थ सबके सार रूप हैं । जो आपने किया है, उसको कोई - कोई तत्ववेत्ता ही जानता है । वही इस संसार में प्रमाणित हुए हैं । हे अव्यक्त ! आपकी ‘गति’ कहिए शक्ति कोई भी नहीं जानते । मैं मूर्ख अज्ञानी हूँ । सहज स्वभाव से ही यह हमारा मन, आपके साधनों से हमने इसको रंगा है । हे प्रभु ! परन्तु आपकी गति कोई भी नहीं जान पाते । जैसे हमारा निर्वाह हो, वैसे ही आप अपने चरणों में हमको लगाइये ।
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