दादू हरि रस पीवतां, कबहुँ अरुचि न होइ ।
पीवत प्यासा नित नवा, पीवणहारा सोइ ॥ ३१९ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! हरि - रस को भाव - भक्ति, ज्ञान - ध्यान आदि द्वारा पान करते हुए कहिए, धारण करते हुए कभी भी अरुचि नहीं होती है । और हरि - रस को पीते हुए भी जिन्हें नित नई प्यास और जागती है, सो ही सच्चे संत पीनेवाले हैं ॥ ३१९ ॥
वरुण मित्र कियो जाट को, आना मेरे गेह ।
गयो तिसायो पीगयो, अमृत कर अति नेह ॥
दृष्टान्त ~ वरुण देवता एक समय मारवाड़ में चले गए । प्यास से दुखी होकर एक जाट की झोंपड़ी में पहुँचे । जाट ने एक मतीरा निकाला और वरुण देवता को खिलाया - पिलाया, उनकी भूख - प्यास दोनों मिट गई । वरुण देवता बोले ~ "तूने हमें अमृत जैसा रस पिलाया है, तूँ हमारा मित्र है । दुःख पड़े, तब मेरे पास आना । समुद्र तट पर जाकर आवाज देना कि मैं तेरा मित्र आ गया हूँ, वरुण देवता ! फिर मैं भी तुझे अमृत पिलाऊंगा और तेरा दुःख दूर करूँगा ।''
एक समय काल पड़ने पर जाट समुद्र पर गया । पूर्वोक्त प्रकार सब समाचार सुनाये । वरुण देवता हाथ में अमृत का घड़ा लेकर प्रकट हो गए । जाट बोला ~ प्यास लगी है । तब वरुण देवता अमृत पिलाने लगे । जाट पीता - पीता तृप्त नहीं हुआ । वरुण देवता बोला ~ "अरे धापा कि नहीं ?'' तब जाट बोला ~ "आज तक कोई अमृत से भी धापा है क्या ?'' यह कहकर जाट बोला ~ "बस रहने दे'' । वरुण देवता ने जाट को बहुत से रत्न दिए और विदा किया । इसी प्रकार भगवान् के भक्त, भक्ति रूपी अमृत से कभी तृप्त नहीं होते हैं ।
दादू जैसे श्रवणा दोइ हैं, ऐसे होंहि अपार ।
राम कथा रस पीजिये, दादू बारंबार ॥ ३२० ॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जैसे यह दो श्रोत्र इन्द्रियां हैं, ऐसे रोम - रोम में अपार होवें, तो बारम्बार मनुष्य जन्म धारण करके राम - रस रूप कथा अमृत को पीते ही रहें ॥ ३२० ॥
सुनत अरुचि नहिं हरि कथा, अचवत रस न अघात ।
जगन्नाथ सत्संग से, कबहुँ न मन अलसात ॥
जैसे नैना दोइ हैं, ऐसे होंहि अनंत ।
दादू चंद चकोर ज्यों, रस पीवैं भगवंत ॥ ३२१ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जैसे इस शरीर में दो नेत्र हैं, ऐसे अनेक नेत्र रोम - रोम में हो जावें, तो भक्तजन परमात्मा का अतृप्तभाव से दर्शनरूपी अमृत पान करें । जैसे चन्द्रमा का दर्शन करके चकोर अतृप्त रहता है, दर्शन की इच्छा बनी ही रहती है, वैसे ही भक्तों को परमेश्वर के दर्शन की इच्छा बनी रहती है ॥ ३२१ ॥
साजन दीन्हों हे सखी ! दर्शन सर्वस लोइ ।
मो मन नैन कुपात्र ज्यूं, तृप्ति न मानै कोइ ॥
ज्यों रसना मुख एक है, ऐसे होंहि अनेक ।
तो रस पीवै शेष ज्यों, यों मुख मीठा एक ॥ ३२२ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जैसे शेष जी के एक सहस्त्र मुख हैं और उनमें दो सहस्त्र जिह्वा हैं, वैसे ही हमारा रोम - रोम भी जिह्वा रूप होकर भगवान् के गुण - कीर्तन में लयलीन हो तो हम प्रभु की भक्ति पावें, तभी हमारा मुख मीठा होवे ॥ ३२२ ॥
ज्यों घट आत्म एक है, ऐसे होंहि असंख ।
भर भर राखै रामरस, दादू एकै अंक ॥ ३२३ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जिस प्रकार हमारा यह पंच भौतिक शरीर असंख्य रूप होकर असंख्य मुख, नेत्र, श्रोत्र आदि इन्द्रियों सहित राम - रस अमृत पान करे, तभी राम से अभेद होवे ॥ ३२३ ॥
ज्यों ज्यों पीवै राम रस, त्यों त्यों बढै पियास ।
ऐसा कोई एक है, बिरला दादू दास ॥ ३२४ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! संतजन जैसे - जैसे राम रस पीते हैं, वैसे - वैसे ही उनकी प्यास बढ़ती जाती है । परन्तु ऐसे एक - आध ही विरहीजन भक्त हैं जो इस प्रकार राम - रस पीते हैं ॥ ३२४ ॥
"मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चित् यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ॥ '' (गीता)
सोरठा - "गागर गलती जोइ, जे हर सिर गंगा बहै ।
तऊ न तृपत होइ, घणैं घणैंरी नै खपै ॥ ''
दोहा - अमृत अंत न आवहि, तृप्ति न पीवनहार ।
सोखै बड़वा अनल ज्यों, पोखै सलिता धार ॥
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)
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