॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
१८२. हितोपदेश । त्रिताल ~
हरि के चरण पकर मन मेरा, यहु अविनाशी घर तेरा ॥ टेक ॥
जब चरण कमल रज पावै, तब काल व्याल बौरावै ।
तब त्रिविध ताप तन नाशै, तब सुख की राशि विलासै ॥ १ ॥
जब चरण क मल चित लागै, तब माथै मीच न जागै ।
तब जनम जरा सब क्षीना, तब पद पावन उर लीना ॥ २ ॥
जब चरण कमल रस पीवै, तब माया न व्यापै जीवै ।
तब भरम करम भय भाजै, तब तीनों लोक विराजै ॥ ३ ॥
जब चरण कमल रुचि तेरी, तब चार पदारथ चेरी ।
तब दादू और न बांछै, जब मन लागै सांचै ॥ ४ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें हितोपदेश कर रहे हैं कि हे हमारे मन ! अब तूँ पापों के हर्ता हरि के चरणों की शरण ग्रहण कर । वे हरि अविनाशी ही तेरा वास्तविक घर है । जब हरि के प्यारे संतों के चरणों की रज ग्रहण करेगा, तब फिर तेरा काल रूपी सर्प बौखला जायेगा । और तीन प्रकार की जो तन की ताप हैं, वे भी तेरी नष्ट हो जायेंगी । तथा सम्पूर्ण सुख की ‘राशि’ हरि की भक्ति करके तूँ आनन्द को प्राप्त होगा । जब हृदय कमल में हरि के चरणारविन्द में तेरा चित्त लगेगा, तब तेरे सिर पर मौत नहीं आवेगी और जन्म - मृत्यु, जर्जर अवस्था भी क्षीण हो जायेगी । जब पवित्र प्रभु चरणों में तू लीन रहेगा और कमल चरणों की भक्ति रूप अमृत - रस को पीवेगा, तब मेरे जीव पर माया और माया का कार्य रू प धर्म व्याप्त नहीं होगा । तब तेरा सम्पूर्ण कर्म - भय दूर हो जायेगा । तब तीनों लोकों में व्याप्त प्रभु का तुझे साक्षात्कार होने लगेगा । जब चैतन्य स्वरूप के तेज - पुंज रूपी चरणों में, तेरी प्रीति उत्पन्न होगी, तब चार पदार्थ कहिए अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष ये तेरे सामने सेवक बनकर रहेंगे । परन्तु सच्चे परमेश्वर के निष्कामी भक्त, उन में से किसी की भी इच्छा नहीं रखते । अपने मन को सत्य स्वरूप परमेश्वर में लगाकर मस्त रहते हैं ।
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