#daduji
॥ दादूराम सत्यराम ॥
साध कहैं उपदेश विरहणी !
तन भूले तब पाइये,
निकट भया परदेश, विरहणी ॥टेक॥
तुम ही माहैं ते बसैं,
तहाँ रहे कर वास ।
तहँ ढ़ूँढ़े पीव पाइये,
जीवन जीव के पास, विरहणी ॥१॥
परम देश तहँ जाइये,
आतम लीन उपाइ ।
एक अंग ऐसे रहै,
ज्यों जल जलहि समाइ, विरहणी ॥२॥
सदा संगाती आपणा,
कबहूँ दूर न जाइ ।
प्राण सनेही पाइये,
तन मन लेहु लगाइ, विरहणी ॥३॥
जागै जगपति देखिये,
प्रकट मिल है आइ ।
दादू सन्मुख ह्वै रहै,
आनन्द अंग न माइ, विरहणी ॥४॥
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साभार ~ Ramjibhai Jotaniya
Prakriti Rai ~
प्रातः का यह आस-पंछी सांझ होते खो न जाये,
किलकता जीवन कहीं फिर रैन- शैया सो न जाये,
घेर लेती जब निराशा हृदय व्याकुल ठाँव माँगे है,
मन का एक कोना शांत मधुवन- छाँव मांगे है"
सरल मन की देहरी पर आए पाहुन, लिए सजल सपने,
प्रीति सुंदर रूप धरती, सभी दुश्मन - दोस्त अपने,
भ्रमित है मन, झूठे जग में सहज पथ के गाँव माँगे है'
नयनो ने कई मौसम- रंग देखे घटा सावन,धूप-छाया,
कड़ी दुपहर, कृष्ण-रातें, दुख-घनेरे, भोग, माया'
क्लांत है जीवन-पथिक यह, राह तरुवर-छाँव मांगे है" ! ॐ
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