गुरुवार, 28 मई 2015

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॥ दादूराम सत्यराम ॥
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*मार्कंडेय की शिव भक्ति*
पुत्र प्राप्ति की कामना से मृकंडु ऋषि ने घोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें पुत्र होने का वरदान दिया। किंतु उसकी आयु मात्र सोलह वर्ष निर्धारित कर दी। शिव की कृपा से प्राप्त पुत्र का नाम मार्कंडेय रखा गया। |
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वह बड़ा ही मेधावी था और सोलह वर्ष के पहले ही वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। कम आयु की बात से माता बहुत चिंतित रहती थी। उदास माता से जब अल्पायु की बात मार्कंडेय को ज्ञात हुई तब वह शिव की भक्ति और स्तोत्र पाठ में संलग्न हो गया।
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आयु पूरी होने पर उसका प्राण हरण करने के लिए जब यमराज पहुंचे तब उसने यमराज को अपनी शिव पूजा की समाप्ति तक रुकने के लिए कहा। क्रोधित यमराज जब उसे मारने दौड़े तब उसने यमराज से अनुरोध किया कि कृपया मेरी पूजा बाधा न डालें, इसे पूरा हो जाने दें। मैं स्वत: आपके साथ जाने के लिए तैयार हो जाऊंगा।
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उसकी धृष्टता देख यमराज क्रोधित हो उस पर काल पाश फेंकने के लिए तत्पर हो गए। लेकिन बिना देर किए भोले शंकर अपने भक्त के बचाव में प्रकट हो गये। मृत्यु के स्वामी भोले शंकर को मार्कंडेय के बचाव में खड़े देख यमराज रुक गये। मार्कंडेय भोले शंकर के चरणों में समर्पित हो गये। मार्कंडेय को अमरत्व का वरदान देते हुए यमराज को भी उन्होंने चेतावनी दी कि जो मेरी भक्मेंति लगा हो उसे प्रताड़ित करने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है।
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रोम रोम लै लाइ धुनि, ऐसे सदा अखंड ।
दादू अविनाशी मिले, तो जम को दीजे दंड ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! जब यह मन भक्ति - परायण होकर ब्रह्म में लीन होता है और फिर रोम - रोम से ब्रह्म - ध्वनि होने लगे, उस अवस्था में यह जीव यम रूप काल से निर्भय हो जाता है ॥
अष्ट चक्र पवना फिरै, छह सहस्र इक्कीस ।
जोग अमर जम को गिलै, दादू बिसवा बीस ॥
छह सहस्र इक्कीस का, अजपा जाप विचार ।
यों दादू निज नांव ले, काल पुरुष को मार ॥
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दादू जरा काल जामण मरण, जहाँ जहाँ जीव जाइ ।
भक्ति परायण लीन मन, ताको काल न खाइ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! जर्जर अवस्था, काल, जन्मना - मरना, यह जीव कर्मानुसार जहाँ भी जाता है, ये सब इसके साथ ही रहते हैं । परन्तु जब निष्काम परमेश्वर की भक्ति में मन लीन होता है, उसको फिर काल नहीं खाता । वह फिर काल से मुक्त हो जाता है ॥

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