गुरुवार, 28 मई 2015

‪#‎daduji‬
॥ दादूराम ~ श्री दादूदयालवे नम: ~ सत्यराम ॥
"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =

अथ अध्याय ४ ~ 
६ आचार्य कृष्णदेव जी ~ 
प्रात: सब संत ब्रह्म - मुहुर्त में उठ जाते थे और शौच स्नानादि शारीरिक क्रियाओं से निवृत होकर ब्रह्म - भजन करते थे । फिर प्रकाश होने पर श्रीदादूवाणी का पाठ करते थे । इतने में सत्संग का समय हो जाता था अत: सब संत सत्संग सभा में आकर आचार्य जी को साष्टांग दंडवत सत्यराम करके यथा प्राप्त स्थानों में बैठ जाते थे । फिर वक्ता प्रवचन आरंभ करते थे । 
प्रवचन करने वाले विद्वान संत का प्रवचन सुनकर सर्व प्रथम आये हुये विज्ञ श्रोता तो समझते थे कि उपनिषदों का प्रवचन चल रहा है । कारण उपनिषदों और दादूवाणी की विचार धारा में अन्तर नहीं है । दादूवाणी के बहुत से वचन तो श्रुति स्वरुप ही हैं । श्रुति वचनों से उन दादूवाणी के वचनों का केवल भाषा का ही अन्तर है, अर्थ का अन्तर लेश मात्र भी नहीं है । अत: परमानन्द प्रदायिनी दादूवाणी की कथा से विज्ञ श्रोताओं को उपनिषदों के श्रवण के समान आनन्द का लाभ होता था । 
कथा के पश्‍चात् आगत नगर के श्रोता नगर को चले जाते थे और बाहर से अतिथि रुप में आये हुये श्रोता संत सेवा के कार्य में लग जाते थे । संत लोग सुनी हुई कथा के मनन में लग जाते थे फिर कथा मनन के द्वारा ही कुछ समय ब्रह्मविचार में लग जाते थे । इतने में ११ बजे भोजन की सत्यराम हो जाती थी । अत: सब संत तथा भक्त भोजनार्थ पंक्ति में यथा योग्य स्थानों पर बैठ जाते थे फिर आचार्य पंक्ति में आते तब सब संत तथा सब भक्त उठकर खडे हो जाते थे । आचार्य जी के बैठ जाने पर सब बैठ जाते थे । फिर क्रम से भोजन परोसा जाता था । प्रथम आचार्य जी की चौकी पर से परोसना आरंभ करते थे । पंक्ति में सब वस्तु आ जाने पर यदि बाहर के भक्त की रसोई होती तब तो वह आचार्य जी को भेंट देकर जीमने की प्रार्थना करता और भंडार की ओर से होती तब बिना भेंट ही आचार्य जी जीमने की आज्ञा देते थे । फिर सब संत तथा भक्त जो पंक्ति में बैठे होते सो सब जीमने लग जाते थे । जितना जीम सकते थे उतना ही लेते थे । संत लोग जूंठा नहीं छोडते थे ।भोजन हो जाने पर निरंजन निराकार वृद्ध(ब्रह्म) की जय, दादूजी महाराज की जय, इस प्रकार गरीबदासजी, मसकीनदासजी, फकीरदासजी और जैतरामजी की जय बोल कर पंक्ति उठ जाती थी । फिर संत तथा भक्त अपने - २ आसनों पर जाकर विश्राम करते थे । 
(क्रमशः)

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