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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ द्वादश विन्दु ~*
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*भैराणेगिरि पर भैरूं को उपदेश -*
ऐसे ही मनुष्य तन को व्यर्थ खो देते हैं -
"मोह्यो मृग देख वन अंधा,
सूझत नहीं काल के फँधा ॥टेक॥
फूल्यो फिरत सकल बन मांहीं,
शिर सांधे शर सूझत नाँहीं ॥१॥
उदमद मानो बन के ठाठ,
छाड चल्यो सब बारह बाट ॥२॥
फँध्यो न जाने बन के चाइ,
दादू स्वाद बँधानो आइ ॥३॥"
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उक्त उपदेश सुनकर भैरूं ने कहा - स्वामिन् ! आप तो प्रभु के प्यारे संत हैं, अतः आपके आगे मेरी शक्ति तो कुछ भी काम नहीं कर सकती है । इससे मैं आपसे प्रार्थना करता हूं, आप मेरे स्थान के पास विराजेंगे तो मैं कहां जाऊं ? मैं यहां चिरकाल से रहता हूँ । यहां मुझे मेरा भक्त दासा-नरुका लाया था । मेरे यहां आने पर ही इस स्थान का नाम भैराणा पड़ा था । तब से ही इस बस्ती को भैराणा कहने लगे थे । भैराणा ग्राम की सीमा में जितना पर्वत है वह भी भैराणा ही कहलाता है । इससे पर्वत भी उक्त कारण से ही भैराणा कहलाने लगा था ।
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दादूजी ने कहा - अब इस पर्वत पर परमात्मा के भक्त संत निवास करते हुये प्रभु का भजन करेंगे । इसलिए अब तुम यहाँ मत रहो । भैरूं ने पूछा - तो आप ही बताइयें कहां जाऊं ? दादूजी ने कहा - अब तुम बिचूण ग्राम की सीमा में रहो । भैराणा ग्राम की सीमा छोड़ दो । यहां जो संत भजन करें, उनकी सेवा भी किया करो, तब ही तुम्हारा कल्याण होगा । । भैरूं ने दादूजी की आज्ञा मान ली और प्रणाम करके क्षमा याचना की और बिचूण की सीमा में चला गया । फिर वहां ही उसका मंदिर बन गया ।
इति श्री दादूचरितामृत द्वादस बिंदु समाप्तः ।
(क्रमशः)
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