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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ एकादश विन्दु ~*
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*= बनवारीजी को उपदेश(४) =*
पारब्रह्म भज प्राणिया, अविगत एक अपार ।
अविनाशी गुरु सेविये, सहजैं प्राण अधार ॥टेक॥
ते पुर प्राणी तेहना, अविचल सदा रहंत ।
आदि पुरुष ते आपणों, पूरण परम अनंत ॥१॥
अविगत आसन कीजिये, आपैं आप निधान ।
निरालम्ब भज तेहनो, आनन्द आतमराम ॥२॥
निर्गुण निश्चल थिर रहै, निराकार निज सोय ।
ते सत प्राणी सेविये, लै समाधि रत होय ॥३॥
अमर आप रमता रमे, घट घट सिरजन हार ।
गुणातीत भज प्राणिया, दादू यही विचार ॥४॥
अर्थ: - हे प्राणी ! गुरुजनों की सेवा करते हुये मन इन्द्रियों के अविषय, अपार, अद्वैत, अविनाशी, प्राणाधार, परब्रह्म का सहज स्वभाव से सदा ही भजन कर । वह सदा निश्चल रहने वाला प्रभुरूप पुर ही तेरा स्थान है । उस परम अनन्त, आदि पुरुष, मन इंद्रियों के परे, विश्व में परिपूर्ण अपने निजी आश्रय रूप प्रभु में ही वृत्ति स्थिति रूप आसन लगा । अन्य आश्रय रहित, निर्गुण, निश्चल, निराकार, आत्म स्वरूप राम ही सदा स्थिर रहता है, वही तेरा है, उसे भज ।
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हे प्राणी ! वृत्ति द्वारा समाधि में अनुरक्त होकर उस सत्य प्रभु की ही उपासना कर । वह सत्ता मात्र से सृष्टि कर्ता है, गुणातीत, अमर, सब में रमने वाला, स्वयं घट घट में रम रहा है । हे प्राणी ! तू अब उसी का भजन कर, हमारा विचारपूर्वक यही उपदेश है । उक्त ४ पद रूप उपदेश सुनकर बनवारीजी कृतकृत्य हो गये थे और -
"हरिजी भलो भयो सन्तन को,
सुन सुन सरस कथा दादू की,
भ्रम भागो या मन को ॥"
यह पद दादूजी महाराज को भेंट किया था । उक्त उपदेश से ही हरिगिरि शंकरगिरि कृतकृत्य होकर दादूजी के शिष्य हो गये थे । फिर उन्होंने अपने नामों से गिरि शब्द हटा दिया था ।
(क्रमशः)
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