सोमवार, 4 मई 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ १७


#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
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*मैं बहुत सुख पायौ मैं बहुत दुख पायौ,*
*मैं अनन्त पुन्य कीये मेरे पोतै पाप है ।* 
*मैं कुलीन विद्या कौ पंडित परवीन महा,* 
*मैं तो मूढ अकुलीन हीन मेरौ बाप है ॥* 
*मैं हौं राजा मेरी आंन फिरै चहूं चक्क मांहि,* 
*मैं तो रंक द्रव्यहीन मोहि तौ संताप है ।* 
*सुन्दर कहत अहंकार ही तै जीव भयौ,* 
*अहंकार गये यह एक ब्रह्म आप है ॥१७॥* 
‘मैंने बहुत सुख पाया’, ‘मैंने बहुत दुःख पाया’, ‘मैंने अनन्त पुण्य किये’, ‘मेरे भाग्य में पाप ही लिखा हुआ है’ । 
‘मैं उच्च कुलीन हूँ’, ‘मैं प्रवीण(कुशल) महान् विद्वान हूँ’, या ‘मैं मूढ हूँ’, ‘मैं अकुलीन हूँ’, ‘मेरे माता पिता भी हीनजाति या हीनकर्मा थे’ । 
‘मैं राजा हूँ, मेरी आज्ञा चारों दिशाओं में मानी जाती है, या ‘मैं तो दरिद्र, निर्धन तथा सर्वथा हीन हूँ - मुझे यही कष्ट है ।’ 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - ऐसे अहंकार के कारण यह जीव कहलाता है । यदि इसका यह अहंकार विगलित हो जाए तो यह शुद्ध निरञ्जन स्वरूप है ॥१७॥
(क्रमशः)

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