#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग*
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*मैं बहुत सुख पायौ मैं बहुत दुख पायौ,*
*मैं अनन्त पुन्य कीये मेरे पोतै पाप है ।*
*मैं कुलीन विद्या कौ पंडित परवीन महा,*
*मैं तो मूढ अकुलीन हीन मेरौ बाप है ॥*
*मैं हौं राजा मेरी आंन फिरै चहूं चक्क मांहि,*
*मैं तो रंक द्रव्यहीन मोहि तौ संताप है ।*
*सुन्दर कहत अहंकार ही तै जीव भयौ,*
*अहंकार गये यह एक ब्रह्म आप है ॥१७॥*
‘मैंने बहुत सुख पाया’, ‘मैंने बहुत दुःख पाया’, ‘मैंने अनन्त पुण्य किये’, ‘मेरे भाग्य में पाप ही लिखा हुआ है’ ।
‘मैं उच्च कुलीन हूँ’, ‘मैं प्रवीण(कुशल) महान् विद्वान हूँ’, या ‘मैं मूढ हूँ’, ‘मैं अकुलीन हूँ’, ‘मेरे माता पिता भी हीनजाति या हीनकर्मा थे’ ।
‘मैं राजा हूँ, मेरी आज्ञा चारों दिशाओं में मानी जाती है, या ‘मैं तो दरिद्र, निर्धन तथा सर्वथा हीन हूँ - मुझे यही कष्ट है ।’
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - ऐसे अहंकार के कारण यह जीव कहलाता है । यदि इसका यह अहंकार विगलित हो जाए तो यह शुद्ध निरञ्जन स्वरूप है ॥१७॥
(क्रमशः)
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