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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ द्वादश विन्दु ~*
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*भैराणेगिरि पर भैरूं को उपदेश -*
"जब यहु मैं मैं मेरी जाइ ।
तब देखत वेगि मिलैं राम राइ ॥टेक॥
मैं मैं मेरी तब लग दूर,
मैं मैं मेटि मिले भरपूर ॥
मैं मैं मेरी तब लग नांहिं,
मैं मैं मेटि मिलें मन मांहिं ॥२॥
मैं मैं मेरी न पावे कोई,
मैं मैं मेटि मिले जन सोई ॥३॥
दादू मैं मैं मेरी मेटि,
तब तू जान राम सौं भेटि ॥४॥"
हे प्रिय भैरूं देवता ! मैं और मेरापन भगवत् प्राप्ति में बाधक हैं । अतः इनको तो हटाना ही चाहिये ।
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परम प्रेम के स्वरूप प्रभु को प्राप्त करने के लिये अपना कुछ भी नहीं समझना चाहिये -
"नाँहीं रे हम नाँ हींरे,
सत्यराम सब माँहींरे ॥टेक॥
नाँहीं धरणि आकाशा रे,
नाँहीं पवन प्रकाशा रे ।
नाँहीं रवि शशि तारा रे,
नहिं पावक प्रजारा रे ॥१॥
नाँहीं पंच पसारा रे,
नाँहीं सब संसारा रे ।
नहिं काया जीव हमारा रे,
नहिं बाजी कौतुक हारा रे ॥२॥
नाँहीं तरुवर छाया रे,
नहिं पंखी नहिं माया रे ।
नाँहीं गिरिवर वासारे,
नाँहिं समुद्र निवासा रे ॥३॥
नाँहीं जल थल खंडारे,
नाँहीं सब ब्रह्मांडा रे ।
नाँहीं आदि अनंता रे,
दादूराम रहन्ता रे ॥४॥
उक्त पदों को सुनकर भैरूं प्रसन्न हुआ और अन्य भी कुछ सुनना चाहा ।
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तब दादूजी ने स्वार्थी प्राणियों की स्थिति का परिचय देते हुये कहा -
"कागारे करंक पर बोले,
खाइ मांस अरु लग ही डोले ॥टेक॥
जा तन को रच अधिक सँवारा,
सो तन ले माटी में डारा ॥१॥
जा तन देख अधिक नर फूले,
सो तन छाड़ चलारे भूले ॥२॥
जा तन देख मन में गर्वाना,
मिल गया माटी तज अभिमाना ॥३॥
दादू तन की कहा बड़ाई,
निमष माँहि माटी मिल जाई ॥४॥
भैरूं ! ये स्वार्थी प्राणी ही तुम्हारे पास आकर तुम्हारे को निमित्त बनाकर हिंसा करते हैं और तुम्हारे को पिलाने का निमित्त बनाकर मदिरा पान करके अपनी बुद्धि नष्ट करते हैं । मदमस्त होकर भ्रमण करते हुये अपने को नाना फँदों में फँसा कर संसार में नाना कष्ट भोगते हैं ।
(क्रमशः)
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