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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ त्रयोदश बिंदु ~*
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बगरू के भक्तों ने संत मंडली सहित दादूजी की अच्छी सेवा की । दादूजी ने भी उनको सत्संग का अच्छा लाभ दिया । फिर वहां से विचरते हुये क्रांजल्याँ ग्राम पधारे । क्रांजल्याँ में डगायच गोत्र के खंडेलवाल वैश्य महाजन रहते थे ।
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शिष्य रामदास और राणी बाई - उन का नाम रामदास और उनकी धर्म पत्नी का नाम राणी बाई था । वे दोनों ही चाहते थे कि दादूजी महाराज हमारे ग्राम पधारें । अतः उनकी श्रद्धा भक्ति पहचान कर दादूजी महाराज शिष्य मंडली सहित क्रांजल्यां पधारे । तब रामदास और राणी बाई को महान् हर्ष हुआ, वे फूले न समाये ।
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दादूजी ने रामदास को उपदेश दिया -
"कैसे जीवियेरे, सांई संग न पास,
चंचल मन निश्चल नहीं, निशि दिन फिरे उदास ॥टेक॥
नेह नहीं रे राम का, प्रीति नहीं परकाश ।
साहिब का सुमिरण नहीं, करे मिलन की आश ॥१॥
जिस देखे तू फूलिया रे, पाणी पिंड बँधाणा मांस ।
सो भी जल-बल जाइगा, झूठा भोग विलास ॥२॥
तो जीबी जे जीवणा, सुमरे श्वासैं श्वास ।
दादू परकट पिव मिले, तो अंतर होय उजास ॥३॥"
यही पद रामदासजी ने राणी को सुनाया ।
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वे दोनों ही क्रांजल्यां ग्राम में दादूजी के अनन्य भक्त हो गये । फिर राणीबाई को भी इस निम्न पद से उपदेश किया -
"एसो खेल बन्यो मेरी माई,
कैसे कहूँ कछु न जान्यो न जाई ॥टेक॥
सुर नर मुनि जन अचरज आई,
राम चरण को भेद न पाई ॥१॥
मंदिर मांहीं सुरति समाई,
कोऊ है सो देहु दिखाई ॥२॥
मन हि विचार करहु ल्यौ लाई,
दिवा समान कहँ ज्योति छीपाई ॥३॥
देह निरंतर शून्य ल्यौ लाई,
तहँ कौण रमे कौण सोता रे भाई॥४॥
दादू न जाणे ये चतुराई,
सोई गुरु मेरा जिन सुधि पाई ॥५॥"
- उक्त पद का आशय समझकर राणीबाई अति प्रसन्न हुई । रामदास व राणी बाई दादू जी के १५२ शिष्यों में माने जाते हैं दोनों ही अच्छे संत हुये हैं । राणी का एक 'प्रेम पत्रिका' लघु ग्रंथ भी है ।
(क्रमशः)
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