रविवार, 31 मई 2015

#‎daduji‬ 
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२३५. समर्थाई । झपताल
हरे ! हरे !! सकल भुवन भरे, जुग जुग सब करे ।
जुग जुग सब धरे, अकल सकल जरे, हरे हरे ॥ टेक ॥ 
सकल भुवन छाजै, सकल भुवन राजै, सकल कहै ।
धरती अम्बर गहै, चंद सूर सुधि लहै, पवन प्रकट बहै ॥ १ ॥ 
घट घट आप देवै, घट घट आप लेवै, मंडित माया ।
जहाँ तहाँ आप राया, जहाँ तहाँ आप छाया, अगम निगम पाया ॥ २ ॥ 
रस मांही रस राता, रस मांहीं रस माता, अमृत पीया ।
नूर मांही नूर लीया, तेज मांही तेज कीया, दादू दर्श दीया ॥ ३ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें, ईश्‍वर समर्थाई दिखा रहे हैं कि हे समर्थ परमेश्‍वर हरि ! आप ही सब भवनों में व्याप्त हो रहे हो और युग - युगान्तरों में सम्पूर्ण सृष्टि की रचना आप ही करते हो । युग - युग में आप ही सबको धारण किये हैं । हे अकल ! कला अवयव रहित, आप ही फिर सबकी जरणा करते हैं । हे हरे ! हे हरे ! हे सर्व लोकों के राजा ! आप ही सर्व लोकों में शोभा पा रहे हो । आपके सर्व संतभक्त ऐसा कहते हैं कि वह प्रभु, धरती और आकाश को धारण किये हैं और चन्द्रमा, सूर्य उन्हीं की आज्ञा से गमन - आगमन रूप क्रिया करते हैं और उन्हीं की समर्थाई से पवन चल रहा है । घट - घट में आपही दाता रूप बन कर दे रहे हैं और घट - घट में आप ही ले रहे हैं । हे समर्थ ! यह मायावी मंडान सब आपने ही रचा है । हे राजाओं के राजा ! लोक परलोक में आप ही विराजते हो । स्थावर जंगम सृष्टि में, आप ही व्याप रहे हो । आप वेदों से भी अगम हैं । इस प्रकार आपके भक्तों ने ही आपको प्राप्त किया है । आप ही रस रूप हैं । भक्ति - रस द्वारा हम आपमें रत्त होकर मस्त हो रहे हैं । आपका भक्ति - ज्ञानामृत रस पीकर शुद्ध हृदय में ही आपका शुद्ध स्वरूप प्राप्त किया है । आपके ब्रह्म तेज में, व्यष्टि जीवरूप तेज को, हमने अभेद किया है । ऐसे आपने अपने जीवनमुक्त भक्तों को अपना स्वरूप साक्षात्कार कराया है ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें