#daduji
॥ दादूराम सत्यराम ॥
दादू शब्दैं बँध्या सब रहै, शब्दैं ही सब जाइ ।
शब्दैं ही सब ऊपजै, शब्दैं सबै समाइ ॥
दादू शब्दैं ही सचु पाइये, शब्दैं ही संतोंख ।
शब्दैं ही सुस्थिर भया, शब्दैं भागा शोक ॥
दादू शब्दैं ही सूक्ष्म भया, शब्दैं सहज समान ।
शब्दैं ही निर्गुण मिले, शब्दैं निर्मल ज्ञान ॥
दादू शब्दैं ही मुक्ता भया, शब्दैं समझे प्राण ।
शब्दैं ही सूझे सबै, शब्दैं सुरझे जाण ॥
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साभार : @Pannalal Ranga ~
शब्द के हाथ न पांव, एक शब्द औषध करे, एक शब्द करे घाव, आप शक्तिशाली क्रमिक अभ्यास, लगन और समर्पण से बोल सकता है. बोल - चाल में शब्दों का सही चयन करें और नीचे लिखे गुरुमंत्रों पर ध्यान दें -
• आपको महत्वपूर्ण शब्दों को चुनना होगा और महत्वहीन शब्दों को छोड़ना होगा, क्योंकि शब्द ही आपके व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं।
• यदि आप अपने आप में सुधार लाना चाहते हैं, तब आपको सबसे पहले यह पता करना होगा कि बोल - चाल में आपकी स्थिति कैसी है ?
• संसार में एक भाषा ऐसी भी है, जिसे विश्व का हर आदमी समझता है। और वह भाषा है उत्साह और उमंग की, मेहनत और कर्म की।
• बोलने की आदत डालिए, क्योंकि बोलने से आत्मविश्वास पैदा होता है, लेकिन बोलने से पहले अपने शब्दों को रचनात्मक विचारों की तराजू में अवश्य तोलिए।
• जब आप एक झूठ बोलते हैं तब आपको यह नहीं पता होता कि आप कितनी बड़ी मुसीबत में फंसने वाले हैं, क्योंकि एक झूठ को सच में बदलने के लिए बीस झूठ और बोलते हैं।
• यदि आप एक शब्द बोलने से पहले दो बार सोच लेंगे, तब आप हमेशा अच्छा बोलेंगे।
• जिन्हें बातचीत करना नहीं आता, वही लोग सबसे अधिक बोलते हैं। लेकिन जिन्हें बातचीत करनी आती है, वे कम बोलते हैं।
• कृपया और धन्यवाद ऐसे साधारण शिष्टाचार के शब्द हैं, जो आपको और सामने वाले को प्रसन्नता प्रदान करते हैं।
• लोगों के पास बात करने की कला तो होती है, लेकिन वे यह नहीं जानते हैं कि उस बात को समाप्त कैसे किया जाए।
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प्रसिद्ध ग्रीक दार्शनिक सुकरात के पास एक युवक भाषण कला सीखने के उद्देश्य से आया। सुकरात ने स्वीकृति तो दी किंतु दुगुने शुल्क की मांग की। युवक आश्चर्य से बोला - मैं तो पहले से ही बोलने का अभ्यस्त हूं, फिर भी आप मुझसे दूने शुल्क की मांग कर रहे हैं ? तब सुकरात ने कहा - तुम्हें बोलना नहीं बल्कि चुप रहना सिखाने में दूना श्रम करना पड़ेगा।
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बोलने और चुप रहने के ताने-बाने में मनुष्य सदैव ही उलझता आया है। मनुष्य के जीवन में सुख और दुख के जो प्रमुख कारण हैं, उनमें वाणी भी एक है। संत कबीर कहते हैं -
एक शब्द सुखरास है, एक शब्द दुखरास।
एक शब्द बंधन करै, एक शब्द गलफांस॥
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वाणी की इस द्वैधी प्रकृति को संतों ने बड़ी गहनता से अनुभूत किया था इसलिए उन्होंने वाणी के संयमित उपयोग के प्रति लोगों को सदैव सचेत किया। संत कबीर ने एक पद में बताया है कि कब, किससे, क्या बोलना चाहिए -
बोलत बोलत बाढ़ विकारा,
सो बोलिए जो पड़े विचारा।
मिलहिं संत वचन दुइ कहिए,
मिलहिं असंत मौन होय रहिए।
पंडित सों बोलिए हितकारी,
मूरख सों रहिए झखमारी।
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कन्फ्यूसियस ने कहा है - शब्दों को नाप तौल कर बोलो, जिससे तुम्हारी सज्जनता टपके। कबीर ने भी यही कहा है -
बोली तो अनमोल है, जो कोई बोले जान।
हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आन॥
वाणी का अत्यधिक उपयोग प्रायः विकार उत्पन्न करता है। इसलिए संयमित वाणी को विद्वानों ने अधिक महत्व दिया है। ऋषि नैषध कहते हैं - "मितं च सार वचो हि वाग्मिता" अर्थात, थोड़ा और सारयुक्त बोलना ही पाण्डित्य है। जैन और बौद्ध धर्मों में वाक्संयम का महत्वपूर्ण स्थान है।
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कहावत है, "बात बात में बात बढ़ जाती है", इसी संदर्भ में तुलसीदास जी की यह व्यंगोक्ति बहुत बड़ी सीख देती है -
पेट न फूलत बिनु कहे, कहत न लागत देर।
सुमति विचारे बोलिए, समझि कुफेर सुफेर॥
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भारतीय दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति ने कहा है - कम बोलो, तब बोलो जब यह विश्वास हो जाए कि जो बोलने जा रहे हो उससे सत्य, न्याय और नम्रता का व्यतिक्रम न होगा। इसलिए बोलते समय सतर्क रहना चाहिए। कबीर साहब के अनुसार -
शब्द संभारे बोलिए, शब्द के हाथ न पांव।
एक शब्द औषध करे, एक शब्द करे घाव ॥
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फ्रांसीसी लेखक कार्लाइल ने कहा है कि मौन में शब्दों की अपेक्षा अधिक वाक्शक्ति है। गांधीजी ने भी मौन को सर्वोत्तम भाषण कहा है। सुकरात कहा करते थे - ईश्वर ने हमें दो कान दिए हैं और मुंह एक, इसलिए कि हम सुनें अधिक और बोलें कम। किंतु व्यावहारिक जीवन में सदा मौन रहना संभव नहीं है इसलिए संत कबीर ने बोलते समय मध्यम मार्ग अपनाने का सुझाव दिया है-
अति का भला न बोलना,
अति की भली न चुप।
अति का भला न बरसना,
अति की भली न धूप॥
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