॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२११. रूपक ताल ~
इहै परम गरु योगं, अमी महारस भोगं ॥ टेक ॥
मन पवना स्थिर साधं, अविगत नाथ अराधं,
तहँ शब्द अनाहद नादं ॥ १ ॥
पंच सखी परमोधं, अगम ज्ञान गुरु बोधं,
तहँ नाथ निरंजन शोधं ॥ २ ॥
सद्गुरु मांहि बतावा, निराधार घर छावा,
तहँ ज्योति स्वरूपी पावा ॥ ३ ॥
सहजैं सदा प्रकाशं, पूरण ब्रह्म विलासं,
तहँ सेवग दादू दासं ॥ ४ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें, पराभक्ति का स्वरूप कह रहे हैं कि हे जिज्ञासुओं ! इस मनुष्य शरीर में ही सतगुरुदेव का बताया हुआ परमश्रेष्ठ योग, इसके द्वारा ‘महा’ कहिए ब्रह्म रस का अब उपभोग करते हैं । मन, श्वास और सुरति की साधना, अनहद शब्द के द्वारा अव्यक्त परमेश्वर की आराधना करते हैं और पांच ज्ञानेन्द्रियों को भी गुरु उपदेश द्वारा पांच विषयों से रहित कर लिये हैं । अब तो इस मन ने भी गुरुदेव का अगम ज्ञान का बोध प्राप्त कर लिया है । अब तो हृदय में ही निरंजन परमेश्वर का विचार कर रहे हैं । इस प्रकार सत्य उपदेश के देने वाले सतगुरु ने हृदय में ही बताया है । वह सर्व का आधार भूत परब्रह्म ही अन्तःकरण में व्याप्त हो रहा है । हमने अन्तर्मुख वृत्ति द्वारा ज्योति स्वरूप को प्राप्त किया है । अब तो वह निर्द्वन्द्व स्वरूप, सदैव हमारे तन - मन में आप ही प्रकाश रहे हैं । उसी पूर्ण ब्रह्म में अब हम अन्तर्मुख होकर निवास करते हैं या उसका स्मरण रूपी विलास खेल खेलते हैं । ऐसे उत्तम पुरुष ही उसके साथ एकत्व भावना रूप खेल खेलते हुए अभेद रहते हैं ।
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