मंगलवार, 12 मई 2015

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२१६. परिचय चतुस्ताल
पीव घर आवनो ए, अहो ! मोहि भावनो ते ॥ टेक ॥ 
मोहन नीको री हरी, देखूंगी अँखियाँ भरी ।
राखूं हौं उर धरी प्रीति करी खरी, मोहन मेरो री माई ।
रहूँ हौं चरणौं धाई, आनन्द बधाई, हरि के गुण गाई ॥ १ ॥ 
दादू रे चरण गहिये, जाइने तिहाँतो रहिये ।
तन मन सुख लहिये, विनती गहिये ॥ २ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें, परिचय विधि दिखा रहे हैं कि हे संतरूप सहेली ! वह मुख - प्रीति के विषय पीव परमेश्‍वर हमारे हृदय रूप घर में, वह अपना आवागमन करेंगे । तब हमको वह अतिशय प्रियरूप बनकर प्रिय लगेंगे । हे सहेली ! वह विश्‍व विमोहन हरि हमें अति प्रिय लगते हैं । उनको अब हम अपने विचार रूपी नेत्रों में भरकर देखेंगे, और ‘उर’, कहिये हृदय में ही गुप्त रखेंगे । उन्हीं से हमने अपनी सच्ची प्रीति लगाई है । हे संतों ! वह मोहन हमारे हैं और हम मोहन के हैं । हम संसार की तरफ से हटकर उन्हीं के चरणों में पड़कर रहेंगे । और फिर उनसे मिलकर, आनन्द के ‘बधावणे’, कहिए उन हरि के गीत गावेंगे । अब हम हृदय में जाकर, प्रभु के चरणों की शरण ग्रहण करके उनके पास ही रहेंगे ।

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