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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ द्वादश विन्दु ~*
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*= शिष्य झांझू बांझू =*
यह प्रसिद्ध है कि मरणे से डरने वाले भी मरणे से नहीं बच पाते हैं, अमर तो एक परमात्मा ही हैं -
"रहसी एक उपावन हारा,
और चलसी सब संसारा ॥टेक॥
चलसी गगन धरणि सब चलसी,
चलसी पवन अरु पानी ।
चलसी चंद सूर पुनि चलसी,
चलसी सबै उपानी ॥१॥
चलसी दिवस रैण भी चलसी,
चलसी जुग जम वारा ।
चलसी काल व्याल पुनि चलसी,
चलसी सबै पसारा ॥२॥
चलसी स्वर्ग नरक भी चलसी,
चलसी भूचणहारा ।
चलसी सुख दुख भी चलसी,
चलसी कर्म विचारा ॥३॥
चलसी चंचल निश्चल रहसी,
चलसी जे कुछ कीन्हा ।
दादू देख रहै अविनाशी,
और सबै धट क्षीना ॥४॥"
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उक्त उभय पदों का आशय समझकर झांझू बांझू ने कहा - महाराज ! आपका उपदेश तो यथार्थ है किंतु हम तो आज तक संसार की ८४ लाख योनियों में भ्रमण करते रहे हैं । अब आप हमको अपने शिष्य बनाकर जन्मादि संसार दुःखों से हमारी रक्षा करैं । दादूजी ने कहा - जन्मादि संसार दुःख से एक अद्वैत परमात्मा के भजन द्वारा ज्ञान ही बचा सकता है, अन्य कोई भी नहीं बचा सकता । -
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"ऐसा तत्त्व अनुपम भाई,
मरे न जीवे काल न खाई ॥टेक॥
पावक जरे न मारा मरई,
काटा कटे न टारा टरइ ॥१॥
अक्षर खिरे न लागे काई,
शीत धाम जल डूब न जाई ॥२॥
माटी मिले न गगन बिलाई,
अघट एक रस रह्या समाई ॥३॥
ऐसा तत्त्व अनूपं कहिये,
सो गह दादू काहे न रहिये ॥४॥"
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उक्त पद से दोनों को उपदेश करके उनका चोरी करना रूप कर्म छुड़ा कर भगवद् भजन में लगा दिया । फिर वे सबसे विरक्त होकर झोटवाड़े ग्राम में बैठकर निरंतर निर्गुण ब्रह्म का भजन करने लग गये और अच्छे संत हो गये । उनकी समाधि झोटवाड़े में ही है । ये दोनों ५२ शिष्यों में हैं । झांझू बाँझू के जीवन में भी जब उक्त प्रकार परिवर्तन होता हुआ देखा तब एक बार तो प्रतिपक्षी शांत हो गये । अन्य कोई षडयंत्र उसी समय तो नहीं रचा ।
(क्रमशः)
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