सोमवार, 11 मई 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ २४


#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
*मैं सुखिया सुख सेज सुखावन,*
*है गय भूम महा राजधांनी ।*
*हौं दुखिया दिन रैंनि भरौं दुख,*
*मोहि बिपत्ति परी नहीं छांनी ॥*
*हौं अति उत्तम जाति बड़ौ कुल,*
*हौं अति नीच क्रिया कुल हांनी ।*
*सुन्दर चेतनता न संभारत,*
*देह स्वरूप भयौ अभिमांनी ॥२४॥*
*देहाभिमानी आत्मा* : वह कभी सोचता है - ‘मैं बहुत सुखी हूँ; क्योंकि मेरे पास सुखपूर्वक शयन के लिये कोमल शय्या है, घोड़े हैं, हाथी हैं, राज्य के लिये विशाल भूमि प्रदेश है, मेरी बहुत बड़ी राजधानी है ।’
कभी सोचता है - मैं बहुत दुःखी हूँ; क्योंकि मैं दिन रात दुःखी रहता हूँ । मुझे बड़े बड़े संकटों ने घेर रखा है । यह प्रत्यक्ष दिखायी दे रहा है ।’ 
कभी सोचता है - ‘मैं जाति, कुल, वर्ण के कारण बहुत उच्च हूँ ।’ 
कभी उसके ध्यान में आता है - ‘मैं अति नीच हूँ, क्योंकि मेरी क्रियाएँ बहुत ही नीच स्तर की है तथा कुल आदि भी हीन ही हैं’ 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - यह अपनी चेतनता को नहीं स्मरण करता; यह तो देहाभिमानी होकर अपने देह के ममत्त्व में डूबा हुआ है ॥२४॥ 
(क्रमशः)

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