मंगलवार, 26 मई 2015

२५ . सांख्य ज्ञांन को अंग ~ १२


‪#‎daduji‬
|| श्री दादूदयालवे नमः ||
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*= २५ . सांख्य ज्ञांन को अंग =*
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*देह हलै देह चलै देह ही सौं देह मिले,*
*देह खावै देह पीवै देह ही भरतु है ।*
*देह ही हिमारै गरै, देह की पावक जरै,*
*देह इन मांहि झूझै, देह ही परतु है ॥*
*देह ही अनेक कर्म करत बिबिध भांति,*
*चुंबक की सत्ता पाइ लोह ज्यौं फिरतु है ।*
*आतमा चेतनरूप व्यापक साक्षी अनूप,*
*सुन्दर कहत सौ तौ जन्मै न मरतु है ॥१२॥*
इस जगत् में यह देह ही सब कर्म करता है । यह देह ही चलता है, फिरता है, अन्य देहों से मिलता है । यही खाता है, यही पीता है, अन्त में यही मरणाभाव को प्राप्त होता है ।
यही हिमालय में जाकर गलता है, यही अग्नि में जलता है, यही दुसरों से युद्ध करता है यही वहाँ मरता है ।
यह देह ही यहाँ विविध कर्म करता है । जैसे चुम्बक का सहारा पाकर लोहा घूमता रहता है, वैसे ही घूमता है ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इसके विपरीत यह तेरी आत्मा चेतनरूप, सर्वव्यापक, साक्षी, सबसे पृथक् है । न इस का कभी जन्म होता है, न मरण ॥१२॥
(क्रमशः)

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