बुधवार, 27 मई 2015

२५ . सांख्य ज्ञांन को अंग ~ १३



‪#‎daduji‬
|| श्री दादूदयालवे नमः ||
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
.
*= २५ . सांख्य ज्ञांन को अंग =*
*देह कौ न देह कछु देह कौ ममत्त छाड़ि,* 
*देह तौ दमामौ दीये देह देह जात है ।* 
*घट तौ घटत घरी घरी घट नाश होत,* 
*घट के गये तैं घट की न फेरि बात है ॥* 
*पिंड पिंड मांहिं पिंड पिंड कौ उपावत है,* 
*पिंड पिंड खात पुनि पिंड ही को पात है ।* 
*सुन्दर न होइ जासौं सुन्दर कहत जग,* 
*सुन्दर चेतनरूप सुन्दर बिख्यात है ॥१३॥* 
इस देह का अपने कहने योग्य कुछ नहीं है, अतः तूँ इस देह का ममत्व त्याग दे । यह देह तो एक नगाड़ा की ध्वनि है जो नगाड़े के साथ ही चली जाती है । 
जिस घट का कभी निर्माण होता है तो कभी उसका नाश भी हो जाता है । घट के फूट जाने पर उसकी कोई चर्चा भी नहीं करता । 
इसी तरह इस देह से ही अपर देह उत्पन्न होता रहता है, इसी देह से दूसरा(सूक्ष्म) देह खाता है, पीता है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - जिसमें जगत् की जन्ममरण परम्परा नहीं चलती वह चेतन तो पृथक् रूप से सुप्रसिद्ध है ॥१३॥ (यह छन्द चित्रकाय में परिगणित है ।) 
(क्रमशः)

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