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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*= २५ . सांख्य ज्ञांन को अंग =*
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*देह ई नरक रूप दुख, कौ न वारपार,*
*देह ई स्वरग रूप झूठौ सुख मांन्यौ है ।*
*देह ई कौ बंध मोक्ष देह ई अप्रोक्ष प्रोक्ष,*
*देह ई के क्रिया कर्म शुभाशुभ ठांन्यौ है ।*
*देह ई मैं और देह, खुसी व्है बिलास करै,*
*ताहि कौं समुझि बिन आतमा बखांन्यौ है ।*
*दोऊ देह तैं अलिप्त दोऊ कौ प्रकाशक है,*
*सुन्दर चैतन्य रूप न्यारौ करि जांन्यौ है ॥११॥*
तेरा यह देह नरक के समान असीम दुःख का देने वाला है, तूँ उस देह के मिथ्या रूप को स्वर्ग के समान मान बैठा है ।
यह बन्ध या मोक्ष, प्रत्यक्ष या परोक्ष ज्ञान देह को ही होता है, तथा ये शुभ अशुभ क्रिया कर्म देह के आधार पर ही है ।
इस देह में अन्य सूक्ष्म देह प्रविष्ट होकर सुखदुःख आदि का भोग करता है, उस पर तूँ विचार किये बिना इस देह को अपनी आत्मा मान बैठा है ।
तेरा आत्मा इन दोनों देह से अलिप्त, इन दोनों का प्रकाशक चेतनस्वरूप इनसे भिन्न है - ऐसा *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं ॥११॥
(क्रमशः)
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