गुरुवार, 7 मई 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ २०


#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
*सूत्रगरे मंहि मेली भयौ द्विज,* 
*ब्राह्मण व्है कर ब्रह्म न जांन्यौ ।* 
*छत्रिय व्है करि छत्र धर्यौ सिर,* 
*है गय पैदल सौं मन मांन्यौ ॥* 
*वैश्य भयौ वपु की वय देखत,* 
*है झूठ प्रपंच वनिज्ज हि ठान्यौं ।* 
*शूद्र भयौ मिलि शूद्र शरीर ही,* 
*सुन्दर आपु नहिं पहिचांन्यौं ॥२०॥* 
ब्राह्मण द्विज होने के लिये यज्ञोपवीत धारण तो कर लिया, परन्तु ब्रह्मचिन्तन नहीं कर पाया । 
इसी तरह क्षत्रिय भी राज्याभिषिक्त होकर हाथी घोड़े एकत्र करने में ही रह गया । 
वैश्य भी शरीर की स्थिति(आयु) देखते हुए वाणिज्य व्यापार में अपना झूँठ प्रपञ्च फैलाता रहा । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - शूद्र भी अपने शरीर के अनुरूप कार्य करता रहा, परन्तु इनमें से किसी ने आत्मस्वरूप का ब्रह्मसाक्षात्कार हेतु कुछ भी प्रयत्न नहीं किया ॥२०॥ 
(क्रमशः)

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