#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग*
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*दीन हुवौ बिललात फिरै नित,*
*इंन्द्रिनि कै बस छीलक छोलै ।*
*सिंह नहीं अपनौ बल जांनत,*
*जब जंबुक ज्यौं जीतही तित डोलै ॥*
*चेतनता बिसराइ निरंतर,*
*लै जडता भ्रम गांठि न खोलै ।*
*सुन्दर भूलि गयौ निज रूप हि,*
*देह स्वरूप भयौ मुख बोलै ॥२३॥*
विवेक की दरिद्रता(अभाव) लिये हुए यह आत्मा दीन हीन वचन बोलता हुआ, इन्द्रियों के अधीन रहता हुआ भोगों के छिलके छीलता रहता है ।
जैसे सिंह अपना बल भूल जाता है तो वह गीदड़ो की तरह इधर - उधर वन में दीनता धारण किये हुए घूमता रहता हैं ।
वैसे ही अपने चैतन्य गुण को भूलते हुए उसके विपरीत जड़ता धारण कर पुरुष के हृदय की भ्रम ग्रन्थि खुल नहीं पाती ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - यह आत्मा निज रूप को भूल कर देहस्वरूप होकर उसके मुख से बोल रहा है ॥२३॥
(क्रमशः)
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