रविवार, 10 मई 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ २३


#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
*दीन हुवौ बिललात फिरै नित,* 
*इंन्द्रिनि कै बस छीलक छोलै ।* 
*सिंह नहीं अपनौ बल जांनत,* 
*जब जंबुक ज्यौं जीतही तित डोलै ॥* 
*चेतनता बिसराइ निरंतर,* 
*लै जडता भ्रम गांठि न खोलै ।* 
*सुन्दर भूलि गयौ निज रूप हि,* 
*देह स्वरूप भयौ मुख बोलै ॥२३॥* 
विवेक की दरिद्रता(अभाव) लिये हुए यह आत्मा दीन हीन वचन बोलता हुआ, इन्द्रियों के अधीन रहता हुआ भोगों के छिलके छीलता रहता है । 
जैसे सिंह अपना बल भूल जाता है तो वह गीदड़ो की तरह इधर - उधर वन में दीनता धारण किये हुए घूमता रहता हैं । 
वैसे ही अपने चैतन्य गुण को भूलते हुए उसके विपरीत जड़ता धारण कर पुरुष के हृदय की भ्रम ग्रन्थि खुल नहीं पाती । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - यह आत्मा निज रूप को भूल कर देहस्वरूप होकर उसके मुख से बोल रहा है ॥२३॥ 
(क्रमशः)

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