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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ द्वादश विन्दु ~*
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*= दादूजी को मारने हेतु मींणों का आना =*
झांझू बाँझू दो मीणों को बुलाकर कहा - हम तुम्हें धन, मान आदि से संतुष्ट करेंगे, तुम साँभर जाकर दादू को मार कर आजाओ । दोनों मीणे प्रलोभन में आ गये और जैसा उन्होंने कहा था वैसे ही दादूजी को मारने साँभर को चल दिये । जब दादूजी के आश्रम के पास आये तब भगवान् ने सोचा, ये दुष्ट तो संत को मारने का साहस करेंगे ही अतः इनको अंधा कर देता हूँ ।
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वे अंधे हो गये । फिर न दीखने के कारण एक कूप में पड़ गये । फिर मींणों ने कूप में पड़ते ही भगवत् प्रेरणा से दादूजी का नाम उच्चारण करते हुये प्रार्थना की - हे दादूजी महाराज ! हमारी रक्षा करो । दादूजी ने उनकी प्रार्थना अपनी योगशक्ति द्वारा सुनली ।
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फिर उनकी रक्षा के लिए प्रभु से प्रार्थना की -
"पीव तैं अपने काज सँवारे,
कोई दुष्ट दीन को मारन, सोई गह तैं मारे ॥टेक॥
मेरु समान ताप तन व्यापै, सहजैं ही सो टारे ।
संतन को सुखदाई माधव, बिन पावक फँद जारे ॥१॥
तुम तैं होय सबै विधि समर्थ, आगम सबै विचारे ।
संत उबार दुष्ट दुख दीन्हा, अंध कूप में डारे ॥२॥
ऐसा है शिर खसम हमारे, तुम जीते खल हारे ।
दादू सौ ऐसे निर्वहिये, प्रेम प्रीति पिव प्यारे ॥३॥"
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अर्थ: - हे प्रभो ! आप अपने संसार रक्षा संबन्धी कार्य अच्छी प्रकार ही कहते रहते हैं । यदि कोई दुष्ट किसी दीन प्राणी को मारने आता है तो आप उसे पकड़कर मार देते हैं । यदि सुमेरु पर्वत के समान भारी दुःख भी संत पर आता है तो उसे भी आप अनायास ही हटा देते हैं । हे माधव ! आप संतों को सदा ही सुख देने वाले हैं । अपने बिना अग्नि भी संतों को फंसाने वाले फंदे जलाये हैं ।
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हे समर्थ ! आपसे सब प्रकार अच्छा ही होता है । आपके तो आगे आने वाले सभी कार्य पहले से ही विचारे हुये रहते हैं । आपने संत की रक्षा की है और दुष्टों को अन्धे बना कर कूप में डाला है तथा दुःख दिया है । हमारे शिर पर ऐसे समर्थ स्वामी हैं ।
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अभी ही क्या ? आप तो सदा ही संतों की रक्षा करते हुये दुष्टों को जीतते ही रहे हैं और दुष्ट आपसे सदा हारते ही रहे हैं । मेरे प्यारे प्रभु ! मेरे प्रेम की ओर देखते हुये आप प्रीति पूर्वक मेरे साथ ऐसे ही निभाना । अब कूप में पड़े हुये दुष्टों में दुष्टता नहीं भास रही है अतः उन पर कृपा करके उन्हें निकाल दीजिये । दादूजी की उक्त प्रार्थना सुनकर प्रभु ने उन मींणों को निकाल दिया और नेत्र भी खोल दिये ।
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कहा भी है -
"गुरु दादू पै कूड़कर, मारण म्हेले नीच ।
तब स्वामी यह पद कह्यो, दुष्ट कूप के बीच ॥"
अर्थात् कपट पूर्वक दादूजी को मारने के लिये जब नीच मींणों को भेजा गया तब भगवान् ने उनको अंधा बनाकर कूप में डाल दिया था । उसी समय उनकी रक्षा के लिये दादूजी ने उक्त पद से प्रभु को प्रसन्न करके उनको निकलवाया था । फिर प्रभु ने उनको निकाल कर नेत्र भी प्रदान कर दिये थे ।
(क्रमशः)
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