मंगलवार, 12 मई 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ २५


#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग*
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*गर्भ बिषै उत्पत्ति भई पुनि,*
*जन्म लियौ शिशु सोधि न जांनि ।*
*बाल कुमार किसोर युवादिक,*
*बृद्ध भये अति बुद्धि नसांनी ॥*
*जैसी ही भांति भई बपु की गति,*
*तैसौ ही होइ रह्यौ यहु प्रांनी ।*
*सुन्दर चेतनता न संभारत,*
*देह स्वरूप भयौ अभिमानी ॥२५॥*
जब इस प्राणी की गर्भ में स्थित बनी, फिर जन्म हुआ, शिशुरूप में आया, तब इसको कोई ज्ञान नहीं था ।
बाल्यावस्था, कुमार, किशोर, युवा आदी सभी अवस्थाएँ बीत गयीं, अब इस अतिवृद्धावस्था में तो इस की बुद्धि पूर्वापेक्षया अधिक भ्रष्ट हो गयी है ।
कहने का तात्पर्य यह है कि ज्यौं ज्यौं इस के शरीर की अवस्था बदलती थी, त्यौं त्यौं इस प्राणी के विचारों में परिवर्तन आता गया ।
*महाराज श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - यह प्राणी अब भी अपने वास्तविक चेतन रूप पर ध्यान नहीं दे रहा है; अपितु देहाभिमानी होकर देह के अनुरूप ही कार्य कर रहा है ॥२५॥
(क्रमशः)

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