शनिवार, 23 मई 2015

२५ . सांख्य ज्ञांन को अंग ~ १०



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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
*= २५ . सांख्य ज्ञांन को अंग =* 
*तेरौ तो स्वरूप है अनूप चिदानंद घन,* 
*देह तौ मलीन जड या विवेक कीजिये ।* 
*तूं तौ निहसंग निराकार अविनाशी अज,* 
*देह तौ बिनाशवंत ताहि नहिं धीजिये ॥* 
*तूं तौ षट उरमी रहित सदा एक रस,* 
*देह के बिकार सब देह सिर दीजिये ।* 
*सुन्दर कहत यौ बिचारि आपु भिन्न जांनि,* 
*पर की उपाधि कहा आप खैंचि लीजिये ॥१०॥* 
तेरा वास्तविक रूप, अनुपम, चिदानन्दघन है । इसे यह विपरीत यह देह, जिस में तूँ अपना ममत्त्व कर बैठा है, सर्वथा जड़ है - इस बात पर गम्भीरता से विचार कर । 
तूँ तो निःसंग निराकार, अविनाशी एवं अजन्मा है, और तेरा यह रूप जड़ है, विनाशवान है, इस पर कुछ भी विश्वास नहीं करना चाहिये । 
तूँ तो छह ऊर्मियों(शीत, उष्ण, भूख, प्यास, सुख एवं दुःख - उमंगों) से रहित, सदा एक रस(समस्थिति में) रहने वाला है । जडत्व एवं विनाशित्व आदि देह के विकार हैं, उनको तूँ देह का ही मान, अपना नहीं । 
*श्रीसुन्दरदासजी* कहते हैं - इस तरह विचार कर तूँ स्वयं को पृथक् मान । इसी में तेरा हित है । दूसरों की उपाधि को तूँ अपने सिर क्यों लेता है ॥१०॥
(क्रमशः) 

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