सोमवार, 1 जून 2015

शिष्य लघुगोपालजी

 
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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ त्रयोदश बिंदु ~*
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*शिष्य लघुगोपालजी* - फिर क्रांजल्यां से झांझू बांझूजी के आग्रह करने से झोटवाड़े पधारे । वहां झांझू बांझू ने तथा वहां के भक्तों ने शिष्य मंडली सहित दादूजी की अच्छी सेवा की । फिर वहां ही लघुगोपालजी को दीक्षा भी दी  । लघुगोपालजी की साधन प्रगति में शिथिलता देखकर दादूजी महाराज ने उन्हें यह पद सुनाकर सचेत किया - 
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"काल काया गढ़ भेलसी, छीजे दशों दुबारो रे । 
देखत ही ते लूटिये, होसी हाहा कारो रे ॥टेक॥
नाइक नगर न मेल्हसी, एकलड़ो ते जाई रे । 
संग न साथी कोई न आसी, तहँ को जाणे किम थाई रे ॥१॥
सत जत साधो म्हारा भाईड़ा, कांई सुकृत लीजे सारो रे । 
मारग विषम चालबो, कांई लीजे प्राण अधारो रे ॥२॥
जिमि नीर निवाँणाँ ठाहरे, तिमि साजी बांधों पालो रे । 
समर्थ सोई सेविये, तो काया न लागे कालो रे ॥३॥ 
दादू मन घर आँणिये, तो निश्चल थिर थाये रे । 
प्राणी ने पूरो मिले, तो काया न लागे कालो रे ॥४॥  
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काल काया-किले को नष्ट करेगा, दो नेत्र, दो श्रवण, दो नाक, दो नीचे की इन्द्रिय मुख और ब्रह्मरंध्र ये दशों द्वार क्षीण होगें  । देखते-देखते ही आयु-धन को काल लूट ले जायगा तब हाहाकार होगा । काया नगर के स्वामी जीवात्मा को भी नगर में न रहने देगा । वह भी कर्मानुसार अकेला ही परलोक को जायगा । परलोक में उसके साथ कोई भी उसका साथी बनकर न जायगा । वहाँ कौन जानता है क्या होगा ? 
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हे मेरे भाइयो ! सत्य तथा ब्रह्मचर्य पूर्वक कुछ तो सुकृत-सार रूप साधन करो । कठिन मार्ग में चलना है, कुछ प्राणों का आश्रय अवश्य अपनाओ । जैसे नीची भूमि में जल ठहरता है, वैसे ही तुम भी संयमादि साधन सजकर भजन का बांध बाँधो तो मनरूप जल ठहरेगा । फिर उसके द्वारा उन समर्थ प्रभु की भक्ति करोगे, तब काया के काल नहीं लगेगा अर्थात् सूक्ष्म शरीर को काल पकड़ कर न ले जा सकेगा । 
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यदि मन को स्थिर करोगे तो वह निश्चल ब्रह्म में स्थिर हो जायगा । प्राणी को पूर्ण-ब्रह्म मिल जाता है, तब वह अपने सूक्ष्म शरीर को संसार में रख कर नहीं जाता । जैसे उसका आत्मा ब्रह्म में लय हो जाता है, वैसे ही सूक्ष्म शरीर इन्द्रियादिक भी अपने-अपने कारण में मिल जाते हैं ।  उक्त उपदेश से लघु-गोपालजी अति प्रभावित हुये और दादूजी से दीक्षा लेकर दादूजी के शिष्य हो गये । लाघुगोपालजी भी  ५२ थांभायती शिष्यों में गिने जाते हैं । ये झोटवाड़े में ही रहकर साधना करते थे ।
(क्रमशः)

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