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॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२३६. परिचय उपदेश । चौताल ~
पीव पीव, आदि अंत पीव ।
परसि परसि अंग संग, पीव तहाँ जीव ॥ टेक ॥
मन पवन भवन गवन, प्राण कँवल मांहि ।
निधि निवास विधि विलास, रात दिवस नांहि ॥ १ ॥
सास वास आस पास, आत्म अंग लगाइ ।
ऐन बैन निरख नैन, गाइ गाइ रिझाइ ॥ २ ॥
आदि तेज अंत तेज, सहजैं सहज आइ ।
आदि नूर अंत नूर, दादू बलि बलि जाइ ॥ ३ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव साक्षात्कार अर्थ उपदेश कर रहे हैं कि हे जिज्ञासुओं ! इस सृष्टि के आदि में और अन्त में एक परमेश्वर ही स्थिर रहते हैं । हम अन्तर्मुख वृत्ति द्वारा बारम्बार उनके स्वरूप का स्पर्श करके, हमारा जीव उनके संग ही रहता है और जिस निर्द्वन्द्व अवस्था में परमेश्वर रहते हैं, उसी में उनके साथ जीव रहता है । साधक अपने मन और प्राणों को रोककर हृदय कमल में, जहाँ परमेश्वर रूप निधि का निवास है, वहाँ ही हमारा मन गमन करता है । उस जगह सभी विधियाँ, कहिए साधन आनन्द - स्वरूप को प्राप्त करने के होते हैं और वहाँ ज्ञान अज्ञान रूप रात - दिन का भेद, प्रतीत नहीं होता है । अपने अति समीप आत्म - स्वरूप ब्रह्म में ही, अन्तर्मुख वृत्ति लगाकर श्वास - श्वास पर वहीं निवास करते हैं । इस प्रकार सतगुरु उपदेश के द्वारा ज्ञान रूप नेत्रों से प्रत्यक्ष देखकर ध्यान अवस्था में ही बारम्बार गुणानुवाद गाते हुए प्रभु को प्रसन्न करते है, और अब सृष्टि के आदि अंत पर्यन्त ब्रह्म ही साक्षात्कार भास रहा है । इस प्रकार ब्रह्मतेज को अन्तर्मुख वृत्ति द्वारा देखते - देखते अनायास ही सहजावस्था रूप समाधि में आकर, अपने आदि और अन्त में प्रतीत होने वाले परमेश्वर को हृदय में ही प्राप्त करते हैं । ऐसे मुक्त पुरुषों की हम बार - बार बलिहारी जाते हैं ।
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