#daduji
|| श्री दादूदयालवे नमः ||
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
.
*= २५ . सांख्य ज्ञांन को अंग =*
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*आतमा अचल शुद्ध एक रस रहै सदा,*
*देह बिवहारनि मैं देह सौ जांनिये ।*
*जैसैं शशि मंडल अभंग नहीं भंग होइ,*
*कला आवै जाहि घटि बढ़ि सौ बखांनिये ॥*
*जैसैं द्रुम सुथिर नदी कै तटि देखियत,*
*नदी के प्रवाह मांहि चलतौ सौ मांनिये ।*
*तैसैं आतमा अतीत देह कौ प्रकाशक है,*
*सुन्दर कहत यौं बिचारि भ्रम भांनिये ॥१८॥*
*लौकिक व्यवहार देह के साथ* : क्योंकि आत्मा सदा अचल, निष्कलंक एवं समस्थिति वाला(एक रस) है, अतः देह का व्यवहार देह के साथ ही करना चाहिये ।
.
जैसे चन्द्रमण्डल सदा समान ही रहता है, घटता बढ़ता नहीं है; अपितु उसकी कलाएँ हीं घटती बढ़ती हैं, अतः कलाओं में ही घटने बढ़ने का व्यवहार होता है ।
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जैसे कोई वृक्ष नदी तट पर स्थित खड़ा हो, परन्तु उसकी छाया नदी प्रवाह में चलती हुई दिखायी देती है ।
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इसी तरह, *श्री सुन्दरदासजी* कहते हैं - आत्मा सभी अनन्त देहों की प्रकाशक है । वह जो कार्य करता हुआ दिखायी देता है वह उपर्युक्त युक्तियों से विचार कर भ्रम ही माना जाना चाहिये ॥१८॥
(क्रमशः)
|| श्री दादूदयालवे नमः ||
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*= २५ . सांख्य ज्ञांन को अंग =*
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*आतमा अचल शुद्ध एक रस रहै सदा,*
*देह बिवहारनि मैं देह सौ जांनिये ।*
*जैसैं शशि मंडल अभंग नहीं भंग होइ,*
*कला आवै जाहि घटि बढ़ि सौ बखांनिये ॥*
*जैसैं द्रुम सुथिर नदी कै तटि देखियत,*
*नदी के प्रवाह मांहि चलतौ सौ मांनिये ।*
*तैसैं आतमा अतीत देह कौ प्रकाशक है,*
*सुन्दर कहत यौं बिचारि भ्रम भांनिये ॥१८॥*
*लौकिक व्यवहार देह के साथ* : क्योंकि आत्मा सदा अचल, निष्कलंक एवं समस्थिति वाला(एक रस) है, अतः देह का व्यवहार देह के साथ ही करना चाहिये ।
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जैसे चन्द्रमण्डल सदा समान ही रहता है, घटता बढ़ता नहीं है; अपितु उसकी कलाएँ हीं घटती बढ़ती हैं, अतः कलाओं में ही घटने बढ़ने का व्यवहार होता है ।
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जैसे कोई वृक्ष नदी तट पर स्थित खड़ा हो, परन्तु उसकी छाया नदी प्रवाह में चलती हुई दिखायी देती है ।
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इसी तरह, *श्री सुन्दरदासजी* कहते हैं - आत्मा सभी अनन्त देहों की प्रकाशक है । वह जो कार्य करता हुआ दिखायी देता है वह उपर्युक्त युक्तियों से विचार कर भ्रम ही माना जाना चाहिये ॥१८॥
(क्रमशः)
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