卐 सत्यराम सा 卐
*मैं मेरे में हेरा,*
*मध्य मांहिं पीव नेरा ॥टेक॥*
*जहाँ अगम अनूप अवासा,*
*तहँ महापुरुष का वासा ।*
*तहँ जानेगा जन कोई,*
*हरि मांहि समाना सोई ॥१॥*
*अखंड ज्योति जहँ जागै,*
*तहँ राम नाम ल्यौ लागै ।*
*तहँ राम रहै भरपूरा,*
*हरि संग रहै नहिं दूरा ॥२॥*
*तिरवेणी तट तीरा,*
*तहँ अमर अमोलक हीरा ।*
*उस हीरे सौं मन लागा,*
*तब भरम गया भय भागा ॥३॥*
*दादू देख हरि पावा,*
*हरि सहजैं संग लखावा ।*
*पूरण परम निधाना,*
*निज निरखत हौं भगवाना ॥४॥*
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जब मैंने ध्यान के द्वारा अपनी आत्मा में उस परमात्मा को खोजा तो अति समीप ही हृदय-प्रदेश के मध्य में ही उस आत्मा को प्राप्त किया । बाह्य इन्द्रियों से अगम्य, अनुपम जो अष्टदल कमल है, वहां पर उस परमात्मा का विशिष्ट निवास स्थान है । वहां पर स्थित उस परमात्मा को जो ध्यान के द्वारा देखता है वह उसी में लीन हो जाता है ।
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जहां पर हृदय प्रदेश में आत्मा की अखण्ड ज्योति जल रही है, जहां पर राम नाम की साधना द्वारा अन्तःकरण की वृत्ति स्थिर रहती है, वहीँ पर सर्व व्यापक ब्रह्म विशेष रूप से विराजता है । अतः परमात्मा सर्वरूप होने से सब के साथ ही है, दूर नहीं ।
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जहां पर इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, नाड़ियों का संगम है जिसको त्रिवेणी कहते हैं, उसके किनारे पर ध्यान द्वारा हीरे के समान अमूल्य जो ब्रह्म है, उसका ज्ञान प्राप्त किया । उस ज्ञान से मेरे भ्रम और भय नष्ट हो गये और उसी ज्ञान से मैंने ब्रह्म को प्राप्त कर लिया । इस समय मैं सब के आश्चर्य-स्वरूप पूर्ण ब्रह्म को निरन्तर देखता हूँ ।
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श्वेताश्व में लिखा है कि-
यह अंगुष्ठ मात्र परिमाण वाला अन्तर्यामी परम पुरुष सदा ही मनुष्यों के हृदय में सम्यक् प्रकार से स्थित है और वह मन का स्वामी है । निर्मल हृदय और निर्मल मन से ध्यान में लाया हुआ प्रत्यक्ष है । जो इस परमेश्वर को जान लेते हैं, वे अमर हो जाते हैं ।
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हठयोग में-
बाहर की ओर निर्निमेष दृष्टि और भीतर की तरफ लक्ष्य हो, उसको सब तंत्रों में गुप्त वैष्णवी=मुद्रा कहते हैं, जिससे ब्रह्म का साक्षात्कार होता है ।
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