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॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२३७.(फारसी) चौताल ~
नूर नूर अव्वल आखिर नूर ।
दायम कायम कायम दायम, हाजिर है भरपूर ॥ टेक ॥
आसमान नूर, जमीं नूर, पाक परवरदिगार ।
आब नूर, बाद नूर, खूब खूबां यार ॥ १ ॥
जाहिर बातिन, हाजिर नाजिर, दाना तूँ दीवान ।
अजब अजाइब, नूर दीदम, दादू है हैरान ॥ २ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें परिचय उपदेश कर रहे हैं कि हे जिज्ञासु ! शुद्ध स्वरूप ब्रह्म ही सृष्टि के आदि, अन्त, मध्य में स्थिर है तथा वह स्थिर स्वरूप ब्रह्म, सदा सबके पास और सम्पूर्ण संसार में परिपूर्ण हो रहा है । वही आकाश और पृथ्वीरूप है और वह ही पवित्र स्वरूप सबका पालन करने वाला है । वही जल और वायु रूप है और उत्तम से भी उत्तम वही सबका मित्र है । इस प्रकार अन्तर्मुख वृत्ति द्वारा देखने वाले और दिखने वाले के रूप में, आप ही प्रकाशित होते हैं । हे स्वामी ! आप ही बुद्धिमान् सचिव के रूप में सबके अन्तःकरण में प्रेरणा करते हो और आपकी यह रचना बड़ी आश्चर्यकारक है । आपका अद्भुत स्वरूप अनुभव में देखकर हम सभी मुक्तजन चकित हो रहे हैं ।
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