सोमवार, 29 जून 2015

‪#‎daduji‬
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
अथ राग सारंग १५
( गायन समय मध्य दिन)
२६४. गुरु ज्ञान सूर । फख्ता ताल ~ 
हो ऐसा ज्ञान ध्यान, गुरु बिना क्यों पावै ।
वार पार, पार वार, दुस्तर तिर आवै हो ॥ टेक ॥ 
भवन गवन, गवन भवन, मन ही मन लावै ।
रवन छवन, छवन रवन, सतगुरु समझावै हो ॥ १ ॥ 
क्षीर नीर, नीर क्षीर, प्रेम भक्ति भावै ।
प्राण कँवल विकस विकस, गोविन्द गुण गावै हो ॥ २ ॥ 
ज्योति जुगति बाट घाट, लै समाधि ध्यावै ।
परम नूर परम तेज, दादू दिखलावै हो ॥ ३ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें गुरु ज्ञान की दुर्लभता दिखा रहे हैं कि हे जिज्ञासु ! ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरुओं के बिना जैसा अखंड परमेश्‍वर है, वैसा उसका अखण्ड ज्ञान और अखण्ड ध्यान कैसे प्राप्त हो सकता है ? जिस गुरु के ज्ञान के द्वारा साधक दुस्तर - संसार - समुद्र के विषयासक्ति रूप तट से तैर कर अनासक्ति रूप अगले तट पर आ पहुँचे और विषय - वासना रूप भवन में गमन करने वाले मन को ज्ञान तथा ध्यान द्वारा परब्रह्म में लगा सके तथा मन भी ब्रह्म - भवन में गमन कर सके और स्थिर होकर फिर विषयों में रमण करना छोड़ दे तथा स्थिरता - पूर्वक ब्रह्म में ही रमण कर सके, ऐसा ज्ञान और ध्यान तो सत्य उपदेश के देने वाले सतगुरु ही समझा सकते हैं । जैसे दूध में जल और जल में दूध एक रूप हो जाता है, इसी प्रकार प्रेमा - भक्ति के द्वारा आत्मा और परमात्मा एक रूप हो जाते हैं और साधक का प्राण सहित हृदय - कमल प्रसन्न हो - होकर गोविन्द के गुणानुवाद गाने लगता है । योग की युक्ति कहिए साधना द्वारा, अन्तर्मुख वृत्ति सहज समाधि रूप घाट पर पहुँचावे तथा परम ब्रह्मतेज अपने स्वरूप को दिखा सके, ऐसा ज्ञान - ध्यान सच्चे सतगुरु के बिना नहीं प्राप्त होता है ।
“और ज्ञान सब ज्ञानड़ी, ब्रह्म - ज्ञान सो ज्ञान । 
‘रज्जब’ गोला तोप का, ढ़ाहि करै मैदान ॥

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