रविवार, 28 जून 2015

卐 सत्यराम सा 卐
इस हस्त लिखित वाणी को पं. श्री जोसी श्री तुलसीदास जी ने अपने चिरंजीवी जोसी श्री प्रेमजी के पठनार्थ कच्छ के भुज नगर में, श्री कांनजी त्रिकम जी पंड्या से लिखवाया । श्री कांनजी भाई ने वि. सं. १८१०, वैशाख मास, शुक्ल पक्ष, नवमी तिथि, को इसे लिखकर पूर्ण किया | उस समय लिखित इस वाणीजी का शब्द संयोजन एवं साखी क्रम आज उपलब्ध वाणीजी से किंचित भिन्न है, श्रद्दालुजनों की सुविधा हेतु निम्नलिखित सटीक वाणी आज उपलब्ध "दादूवाणी"(टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान) से ली गई है । 
वर्तमान में वड़ोदरा से श्री हर्षद भाई कडिया ने अत्यंत हर्ष एवं श्रद्धापूर्वक इस हस्त लिखित वाणी जी को हम सब के लिए उपलब्ध कराया |

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(परिचय का अंग ४)

संगति कुसंगति
मीठे सौं मीठा भया, खारे सौं खारा ।
दादू ऐसा जीव है, यहु रँग हमारा ॥ 
सुसंग कुसंग का फल बता रहे हैं - जैसे जल मधुर मिश्री से मधुर और खारे नमक से खारा हो जाता है, ऐसा ही यह जीव है । मधुर - सत्संग से आत्म - ज्ञान - मधुरता सम्पन्न और कुसंग रूप क्षार से विषय - वासना रूप क्षारता - सम्पन्न हो जाता है । यह सत्संग रूप हमारा रँग जीव के कल्याण का साधन होने से अति श्रेष्ठ है । अत: सत्संग करना चाहिये ।

अध्यात्म
प्राण पवन ज्यों पतला, काया करे कमाइ ।
दादू सब सँसार में, क्यों ही गह्या न जाइ ॥ 
दो सिद्धों को उपदेश दे रहे हैं - प्राणी अपने स्थूल शरीर को योग साधन द्वारा सुधार कर वायु के समान सूक्ष्म बना ले जो सम्पूर्ण सँसार में किसी भी उपाय से पकड़ा न जाय ॥

बिन श्रवणहुं सब कुछ सुने, बिन नैनहुं सब देखे ।
बिन रसना मुख सब कुछ बोले, यहु दादू अचरज पेखे ॥ 
परब्रह्म निराकार है, अत: हमारे समान उसके श्रवण, नेत्र, रसना और मुख नहीं हैं तो भी वह सब कुछ सुनता है, सब देखता है, सब रसों का आस्वादन करता है, सब कुछ बोलता है । परब्रह्म के स्वरूप में ऐसा महान् आश्चर्य देखा जाता है ।

दादू तेज कमल दिल नूर का, तहां राम रहमानँ ।
तहं कर सेवा बँदगी, जे तू चतुर सयानँ ॥ 
जिसका हृदय कमल शुद्ध और ज्ञान - तेज - सम्पन्न है, उसी में दयालु१ राम का विशेष रूप से निवास रहता है । साधक ! यदि तू विलक्षण चतुरता सँपन्न विचारवान् है तो उस शुद्ध अन्त:करण में ही वृत्ति को स्थिर करके सूक्ष्म रूप से सेवा - पूजा कर ।

दादू काया मसीत कर पँच जमाती, मन ही मुल्ला इमामँ१ ।
आप अलेख इलाही२ आगे, तहं सिजदा३ करे सलामँ४ ॥ 
हमारा शरीर ही मस्जिद है और पँच ज्ञानेन्द्रियाँ ही हमारा साथ देने वाले जमाती हैं । विवेक सम्पन्न मन ही मार्ग प्रदर्शक - मुल्ला१ है । हम शुद्ध अन्त:करण में आत्मा रूप में ईश्वर२ के सन्मुख ही प्रणाम४ पूर्वक उपासना३ करते हैं ।

दादू सब तन तसबीह१ कहै करीमँ२, ऐसा कर ले जापँ ।
रोजा३ एक दूर कर दूजा, कलमा४ आपै आपँ ॥ 
अपने सब शरीर को ही माला१ बनाकर ऐसा जाप करो जिससे रोम - रोम से दयालु२ ईश्वर का नाम उच्चारण होता रहे । एकात्म भाव - व्रत३ करके द्वैत भाव को हृदय से दूर हटाओ । अपने वास्तविक स्वरूप ब्रह्म में ही निरन्तर स्थिति रूप मूल - मँत्र४ पढ़ो, तब ही असत् सँसार से मुक्त हो सकोगे ।

अट्ठे१ पहर अर्श में, बैठा पीरी२ पसँनि३ ।
दादू पसे४ तिन्न के, जे दीदार५ लहँनि६ ॥ 
जो आठौ१ पहर हृदयाकाश में अपने प्रियतम२ प्रभु का दर्शन३ करने के लिये चित्त - वृत्ति ब्रह्म चिन्तन में रखते हुये ब्रह्म का साक्षात्कार५ कर६ चुके हैं, उन सन्तों के दर्शन४ अपने कल्याणार्थ अवश्य करने चाहिये ।

रस (प्रेम - प्याला)
प्रेम पियाला नूर का, आशिक भर दीया ।
दादू दर दीदार में, मतवाला कीया ॥
प्रभु प्रेम का परिचय दे रहे हैं - प्रभु ने निज स्वरूप का प्रेम प्याला आनन्द - रस से भरकर अपने प्रेमी - भक्त मुझ को दिया और हृदय में ही दर्शन देकर अपने स्वरूप में मस्त कर लिया, यह उनका अनुग्रह है ।

दादू प्याला नूर१ दा२, आशिक अर्श पिवन्न३ ।
अठे पहर अल्लाहदा, मुंह दिठ्ठे जीवनि४ ॥ 
प्रेमी जन शुद्ध हृदयाकाश में शुद्ध स्वरूप१ ब्रह्म के प्रेम - रस का२ प्याला पान३ करते हैं और आठौं पहर परब्रह्म का व्यापक रूप से दर्शन करते हुये ही जीवित४ रहते हैं ।

सांई सरीखा सुमिरण कीजे, सांई सरीखा भावे ।
सांई सरीखी सेवा कीजे, तब सेवक सुख पावे ॥ 
जैसा परमात्मा सच्चिदानन्द स्वरूप है, वैसे ही सच्चिदानन्द रूप से उसका स्मरण करना चाहिये तथा जैसे परमात्मा के बल प्रभावादि अपार हैं, वैसे ही उसका यश - गान करना चाहिये तथा जैसा परमात्मा अखण्ड है, वैसी ही उसकी भक्ति भी अखण्ड ही करनी चाहिये । जब उक्त रीति से कीर्तन, स्मरण और प्रीति करता है, तब सेवक ब्रह्मानन्द को प्राप्त कर लेता है ।

परिचय करुणा विनती
दादू सेवक सेवा कर डरै, हम तैं कछू न होइ ।
तूँ है तैसी बँदगी, कर नहिं जाने कोइ ॥ 
परिचय पश्चात् सेवक की करुणा - पूर्वक विनय का स्वरूप बता रहे हैं - सेवक सेवा करके सेव्य के सामने डरता हुआ करुणा पूर्ण विनय करता है - हे भगवन् ! मुझसे आपकी कुछ भी सेवा नहीं हो पाती । मेरे से ही क्या - किन्तु जैसे आप सच्चिदानन्द, अखण्ड, एकरस हो, वैसी सेवा तो कोई भी नहीं कर जानता ।

दादू भीतर पैसि कर, घट के जड़ै कपाट ।
सांई की सेवा करै, दादू अविगत घाट ॥
अन्त:करण की वृत्ति को अन्तर्मुख करके, शरीर के इन्द्रिय रूप कपाटों को प्रत्याहार द्वारा बन्द करे, फिर मन इन्द्रियों से अतीत ब्रह्म - सरोवर के निर्विकल्पावस्था रूप घाट पर ब्रह्म की ब्रह्म - चिन्तन रूप सेवा करे ।

भ्रम विध्वँसन
पूजनहारे पास हैं, देही माँही देव ।
दादू ताको छाड़ कर, बाहर मांडी सेव ॥ 
उपास्य - रूप के भ्रम का नाश कर रहे हैं - उपासक के अत्यन्त समीप शरीर के भीतर हृदयस्थल में ही उपास्य देव निजात्मरूप से स्थित है । अज्ञानी प्राणी भ्रमवश उसे छोड़कर, बाहर अनात्म - अचेतन पदार्थों को भगवान् मान कर उनकी सेवा में लगे हैं । अत: उन्हें चाहिये - सत्संग द्वारा चेतन परमात्मा के स्वरूप को समझकर उसकी उपासना करें ।

सूक्ष्म सौंज अर्चा बन्दगी
आत्म मांहीं राम है, पूजा ताकी होइ ।
सेवा वन्दन आरती, साधु करैं सब कोइ ॥
आन्तर सूक्ष्म अर्चना भक्ति की विशेषता बताते हुये उसके करने की प्रेरणा कर रहे हैं - शरीर के भीतर हृदय स्थल में स्थित जो आत्म स्वरूप राम हैं, उनकी पूजा सूक्ष्म भाव - मय सामग्री से आन्तर ही होती है । श्रेष्ठ सन्त भावमय पदार्थों से ही सेवा करते हैं । भावमय ही आन्तर दण्डवत - वन्दना और भावमय ज्योति आदि से आरती करते हैं ।

दादू माँहीं कीजे आरती, माँहीं पूजा होइ ।
माँहीं सद्गुरु सेविये, बूझै विरला कोइ ॥ 
साधको ! अपने निरंजन देव की भावमय आरती हृदय के भीतर ही करो । उस निरंजन देव की सम्पूर्ण सेवा - पूजा भीतर ही होनी चाहिये तथा ब्रह्म - रँध्र में स्थित गुरु चक्र - स्थल में भीतर ही सद्गुरु की सेवा करो, किन्तु इस आन्तर सेवा की पद्धति कोई विरले सन्त ही जानते हैं । अत: उनसे समझ करके ही करो ।

अरस परस मिल खेलिये, तब सुख आनन्द होइ ।
तन मन मँगल चहुं दिश भये, दादू देखै सोइ ॥ 
आन्तर पराभक्ति की स्थिति में उपास्य उपासक आपस में मिलकर परस्पर प्रेम रूप खेल खेते हैं तब उपास्य - उपासक भाव - जन्य सुख और अभेदानन्द दोनों ही मिलते रहते हैं । पूर्वकाल में इस पराभक्ति की स्थिति में आते ही साधकों के तन - मन में चारों ओर से आनन्द मँगल ही हुये था । वही उभय प्रकार का आनन्द हम भी अनुभव कर रहे हैं ।

सुन्दरी सुहाग
मस्तक मेरे पांव धर, मंदिर माँहीं आव ।
संइयां सोवै सेज पर, दादू चँपै पांव ॥ 
निरँतर साक्षात्कार के लिए प्रार्थना तथा प्रेरणा कर रहे हैं - हे स्वामिन् ! आपके दर्शन की अभिलाषा रूप मेरे मस्तक पर अपना दर्शन रूप चरण रख कर मुझे तृप्त करो और मेरे हृदय - मंदिर में पधारो । प्रश्न - मंदिर में क्या करोगे ? उत्तर - आप मेरी ब्रह्माकार - वृत्ति रूप शय्या पर शयन करें और मैं आपके ध्येय - ज्ञेय रूप उभय पद की अपने प्रेम और ज्ञान रूप हाथों से निरँतर ध्यान और साक्षात्कार रूप सेवा करूँगा ।

पूजा - भक्ति सूक्ष्म सौंज
दादू देव निरंजन पूजिये, पाती पँच चढ़ाइ ।
तन मन चन्दन चर्चिये, सेवा सुरति लगाइ ॥ 
सूक्ष्म सामग्री से अर्चना - भक्ति करने की प्रेरणा कर रहे हैं - पँच ज्ञानेन्द्रियों को भगवत् परायण करना रूप तुलसी - दल चढ़ाकर, तन, मन, समर्पण करना रूप चन्दन लगाकर, निरंजन देव की पूजा करो और अपनी वृत्ति प्रभु के स्वरूप में लगा कर अखँड चिन्तन रूप सेवा करो

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