सोमवार, 29 जून 2015

卐 सत्यराम सा 卐
इस हस्त लिखित वाणी को पं. श्री जोसी श्री तुलसीदास जी ने अपने चिरंजीवी जोसी श्री प्रेमजी के पठनार्थ कच्छ के भुज नगर में, श्री कांनजी त्रिकम जी पंड्या से लिखवाया । श्री कांनजी भाई ने वि. सं. १८१०, वैशाख मास, शुक्ल पक्ष, नवमी तिथि, को इसे लिखकर पूर्ण किया | उस समय लिखित इस वाणीजी का शब्द संयोजन एवं साखी क्रम आज उपलब्ध वाणीजी से किंचित भिन्न है, श्रद्दालुजनों की सुविधा हेतु निम्नलिखित सटीक वाणी आज उपलब्ध "दादूवाणी"(टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान) से ली गई है । 
वर्तमान में वड़ोदरा से श्री हर्षद भाई कडिया ने अत्यंत हर्ष एवं श्रद्धापूर्वक इस हस्त लिखित वाणी जी को हम सब के लिए उपलब्ध कराया |

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(परिचय का अंग ४)

भक्ति भक्ति सबको कहै, भक्ति न जाने कोइ ।
दादू भक्ति भगवँत की, देह निंरतर होइ ॥ 
“भगवान् की भक्ति करो तथा मैं भक्ति करता हूं” ऐसे कहते तो सभी हैं किन्तु केवल कहने वालों में कोई भी भक्ति के वास्तविक आन्तर स्वरूप को नहीं जानते । वे बाह्य प्रतिमा - पूजा और माला - तिलकादिक चिन्ह धारण करने को ही भक्ति समझते हैं । वास्तविक भक्ति तो वही है जो शरीर के भीतर अन्त:करण में निरँतर होती रहती है ।

दादू सहजैं सहज समाइ ले, ज्ञानैं बँध्या ज्ञान ।
सूत्रैं सूत्र समाइ ले, ध्यानैं बँध्या ध्यान ॥ 
निर्विकल्प समाधि रूप सहजावस्था द्वारा वृत्ति सहज - स्वरूप ब्रह्म में विलीन करे । शास्त्र - विचार रूप परोक्ष ज्ञान द्वारा अपरोक्ष ज्ञान में स्थित होवे । गुरु ज्ञान द्वारा व्यष्टि सूत्रात्मा तैजस को सम सूत्रात्मा हिरण्यगर्भ में विलीन करे । प्रतीक ध्यान द्वारा अहँ - ग्रह ध्यान में स्थित होवे ।

दादू दृष्टैं दृष्टि समाइ ले, सुरतैं सुरति समाइ ।
समझैं समझ समाइ ले, लै सौं लै ले लाइ ॥ 
अपनी भेद दृष्टि को सात्विक विचार दृष्टियों द्वारा समदृष्टि में विलीन करे । मायिक पदार्थाकार अपनी वृत्ति को सात्विक वृत्तियों के अभ्यास द्वारा ब्रह्माकार - वृत्ति में लीन करे । अपनी अयथार्थ समझ को सँतों की समझ - द्वारा ईश्वर के वेद, गीतादिक ज्ञान रूप में लीन करे । विषयों में लीनता रूप वृत्ति को सन्तों की वैराग्य वृत्ति के द्वारा विषयों से हटा कर प्रभु में लीन करे ।

जहां राम तहं मन गया, मन तहं नैना जाइ ।
जहं नैना तहं आतमा, दादू सहज समाइ ॥ 
शरीर के भीतर हृदय देश में जहां राम की अनुभूति होती है, वहां ही जाकर साधन सम्पन्न मन स्थिर होता है । जहां मन स्थिर होता है, वहां ही विचार - नेत्र जाते हैं अर्थात् उसी का विचार होता है और जहां विचार - नेत्र जाते हैं, उसी राम में उक्त एकाग्रता के प्रभाव से अभेद ज्ञान होने पर जीवात्मा सहज स्वभाव से ही समा जाता है । अत: उक्त प्रकार साधन द्वारा अभेद स्थिति प्राप्त करो ।

चित्तन खेले चित्त सौं, बैनन खेले बैन ।
नैनन खेले नैन सौं, दादू परकट ऐन ॥ 
अपनी चित्त वृत्तियों द्वारा सम चित्त से चिन्तन रूप, अपनी वाणी द्वारा प्रभु के गीतादिक वचनों का उच्चारण रूप, अपने नेत्रों से प्रभु के नेत्रों को एकटक देखना रूप खेल खेलता है, ऐसा पुरुष प्रत्यक्ष में ही ब्रह्म - स्वरूप है ।

पाकन खेले पाक सौं, सारन खेले सार ।
खूबन खेले खूब सौं, दादू अँग अपार ॥ 
पवित्र साधनों द्वारा प्रभु की सेवा रूप खेल पवित्र प्रभु से खेलता है । सार रूप विचारों द्वारा विश्व के सार स्वरूप ब्रह्म से ब्रह्म - विचार रूप खेल खेलता है । अपने सुन्दर स्वभाव के द्वारा प्रभु की सुन्दरता समझना रूप खेल सुन्दर प्रभु से खेलता है । ऐसा ईश्वर का अँग रूप, वह जीवन्मुक्त आत्मा अपार ब्रह्म - रूप ही हो जाता है ।

नूरन खेले नूर सौं, तेजन खेले तेज ।
ज्योतिन खेले ज्योति सौं, दादू एकै सेज ॥ 
सँसार के दिव्य रूपों के दर्शन द्वारा प्रभु का रूप देखना रूप खेल , शब्दों के ज्ञान प्रकाश से प्रभु के स्वरूप ज्ञान को समझना रूप खेल , आत्म ज्योति के द्वारा ब्रह्म ज्योति से ब्रह्म ज्योति की प्राप्ति रूप खेल, खेलता है । ऐसा पुरुष ब्रह्म की निर्विकल्प समाधि शय्या पर ब्रह्म रूप होकर रहता है ।

पँच पदारथ मन रतन, पवना माणिक होइ ।
आतम हीरा सुरति सौं, मनसा मोती पोइ ॥ 
ब्रह्म को पहनाने योग्य हार बता रहे हैं - पँच ज्ञानेन्द्रियों की अन्तर्मुखता रूप (१ स्वर्ण २ चाँदी ३ प्रवाल ४ नीलम ५ मरकत) पाँचों पदार्थों के पाँच मणियें, मन - रत्न, प्राण - माणिक्य, बुद्धि - मोती और जीवात्मा - हीरा इन सबको अद्वैत निष्ठा सूत्र में अभेद वृत्ति से पोकर हार तैयार करो ।

अजब अनूपम हार है, सांई सरीखा सोइ ।
दादू आतम राम गल, जहां न देखे कोइ ॥ 
हार की विशेषता बताते हुए पहनाने की प्रेरणा कर रहे हैं - उक्त हार अति अद्भुत, अनुपम तथा परमात्मा को पहनाने जैसा ही है । इस हार को कोई भी न देख सके, ऐसे हृदय स्थान में स्थित अपने शुद्ध साक्षी आत्मा राम के निर्विकल्प स्थिति रूप गले में पहनाओ अर्थात् उक्त सबको निर्विकल्प बनाओ ।

दादू ऐसा बड़ा अगाध है, सूक्षम जैसा अँग ।
पुहुप वास तैं पत्तला, सो सदा हमारे संग ॥ 
ब्रह्म की महत्ता तथा सूक्ष्मता का परिचय दे रहे हैं - ब्रह्म महान् तो ऐसा है कि किसी प्रकार भी उसकी महानता का थाह नहीं आ सकता । लघु भी इतना है - इन्द्रियाँ नहीं देख पाती । यदि उसकी सूक्ष्मता का वाणी से परिचय दें तो इतना ही कह सकते हैं कि वह पुष्प - गँध से भी अति सूक्ष्म है और व्यापक होने से सदा हमारे साथ है ।

दादू जब दिल मिली दयालु सौं, तब अंतर कुछ नाँहि ।
ज्यों पाला पाणी मिल्या, त्यों हरिजन हरि माँहि ॥ 
भक्त भगवान् में मिल जाने पर भक्त भगवान् का भेद नहीं रहता यह कह रहे हैं - जब साधन द्वारा मन - वृत्ति दयालु प्रभु में मिल जाती है तब भक्त और भगवान् में कुछ भी भेद नहीं रहता । फिर तो जैसे हिम का पत्थर सूर्यादि के ताप से गलते ही जल में मिल जाता है, वैसे ही प्रारब्ध समाप्ति पर शरीर गिरते ही भक्त भगवान् में मिल जाता है ।

दादू जब दिल मिली दयालु सौं, तब सब पड़दा दूर ।
ऐसे मिल एकै भया, बहु दीपक पावक पूर ॥ 
भक्ति द्वारा जब अन्त:करण की वृत्ति दयालु भगवान् में मिलती है तब निज स्वरूप के ज्ञान से अविद्या रूप सब पड़दे दूर हो जाते हैं । फिर तो जैसे अनेक दीपक ज्योतियां दीपकों को त्यागकर एक व्यापक अग्नि में मिल जाती हैं, वैसे ही आत्मा सूक्ष्म शरीर को त्यागकर ब्रह्म में लय हो जाती है ।

दादू जब दिल मिली दयालु सौं, तब पलक न पड़दा कोइ ।
डाल मूल फल बीज में, सब मिल एकै होइ ॥ 
जब अपरोक्ष ज्ञान द्वारा भगवान् में मनोवृत्ति लय हो जाती है तब आत्मा और ब्रह्म के बीच में एक पलक मात्र भी कामादि दोष रूप पड़दा नहीं रहता, निरँतर ब्रह्माकार वृत्ति ही रहती है । जैसे वृक्ष के मूल, डाल और फल ये सब मिलकर बीज में एक रूप हो जाते हैं, वैसे ही मनोवृत्ति के ब्रह्म में लय होने पर कामादि सभी प्रपँच एक ब्रह्म रूप ही हो जाता है ।

फल पाका बेली तजी, छिटकाया मुख माँहिं ।
सांई अपना कर लिया, सो फिर ऊगे नाँहिं ॥ 
जीवात्मा रूप फल ब्रह्मज्ञान - विचार - ताप से जब निरँतर ब्रह्माकार वृत्ति रूप परिपाकावस्था को प्राप्त होता है तब वह अविद्या बेलि - त्याग देता है । अविद्या शून्य होते ही ब्रह्म - स्वामी जीवात्मा - फल को अपना कर, अभेद स्थिति - मुख में डाल देता है । इस अभेद स्थिति रूप अपरोक्ष ज्ञान की ताप से जीवात्मा रूप फल का कर्म - बीज भुन जाता है । अत: वह पुन: जन्म - मरण रूप अंकुर वाला नहीं होता ।

दादू काया कटोरा दूध मन, प्रेम प्रीति सौं पाइ ।
हरि साहिब इहिं विधि अँचवै, बेगा बार न लाइ ॥ 
साधक ! काया कटोरे में स्थित शुद्ध मन - दूध में प्रेम रूप मिश्री मिलाकर प्रीति - पूर्वक भगवान् को पिला । पाप - ताप हरने वाले भगवान् उक्त विधि से ही शुद्ध मन - दूध पीते हैं । तू भगवान् को उक्त प्रकार पय - पान कराने में शीघ्रता कर, विलम्ब मत कर ।

दादू माता प्रेम का, रस में रह्या समाइ ।
अंत न आये जब लगैं, तब लग पीवत जाइ ॥ 
प्रभु - प्रेम रूप साधना का साधक प्रेम - रस में ही निमग्न होकर मस्त रहता है और जब तक भेद भावना का अन्त नहीं आता, तब तक प्रेम - रस का पान करता ही जाता है ।

पीया तेता सुख भया, बाकी बहु वैराग१ ।
ऐसे जन थाके नहीं, दादू उनमनि२ लाग ॥ 
भगवत् प्रेमियों ने जितना भजनानन्द - रस पान किया उतना तो उन्हें अक्षय आनँद प्राप्त हुआ किन्तु भजन का अन्त तो आता नहीं, अत: जो शेष रहा, उसके पान में भी उनका निश्चय - पूर्वक बहुत प्रेम१ रहा । इस प्रकार भजनानन्द - रस के रसिक - जन साँसारिक भावनाओं से शून्य समाधि२ अवस्था को प्राप्त करके भी भजनानन्द - रस पान से तृप्त नहीं हुये

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