सोमवार, 29 जून 2015

२६ . बिचार को अंग ~ ५

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|| श्री दादूदयालवे नमः ||
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*= २६. बिचार को अंग =*
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भूमि सु तौ गंध कौं छाड़त, 
नीर सु तौ रस तैं नहिं न्यारौ । 
तेज सु तौ मिलि रूप रह्यौ पुनि, 
वायु सपर्श सदा सु पियारौ ॥ 
व्यौंम रु शब्द जुदे नहिं होत सु, 
अेसैं ही अंतःकरन बिचारौ । 
ये नव तत्त्व मिले इन तत्त्वनि, 
सुन्दर भिन्न स्वरूप हमारौ ॥५॥ 
पृथ्वी से गन्ध पृथक् नहीं है, न जल से रस भिन्न है । तेज से सम्पृक्त है तो वायु से स्पर्श भी भिन्न नहीं है । वह उसको सदा ही प्रिय है । 
इसी तरह शब्द से आकाश भी भिन्न नहीं है तथा इस पद्धति से अन्तःकरण चतुष्टय के विषय में भी समझ लेना चाहिये । 
श्री सुन्दरदास जी कहते हैं - ये नौ तत्व अवशिष्ट सोलह तत्त्वों से मिलकर समस्त जगद्व्यवहार चलाते हैं । हमारा आत्मस्वरूप इन सभी तत्त्वों से पृथक् ही है ॥५॥
(क्रमशः)

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