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॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२९३. राज मृगांक ताल ~
कब देखूं नैनहुँ रेख रति, प्राण मिलन को भई मति ।
हरि सौं खेलूं हरि गति, कब मिल हैं मोहि प्राणपति ॥ टेक ॥
बल कीती क्यों देखूंगी रे, मुझ मांही अति बात अनेरी ।
सुन साहिब इक विनती मेरी, जनम - जनम हूँ दासी तेरी ॥ १ ॥
कहै दादू सो सुनसी सांई, हौं अबला बल मुझ में नांही ।
करम करी घर मेरे आई, तो शोभा पीव तेरे तांई ॥ २ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव विरह का स्वरूप कह रहे हैं कि हे संतों ! हमारे जीवात्मा में परमेश्वर प्राप्ति के लिये विरह का दर्द हो रहा है । हे नाथ ! आपको चाहे हम अपने ज्ञान रूप नेत्रों से एक क्षण भर ही देखें तो । हमारे प्राण और बुद्धि, जो आपके मिलने के लिये व्याकुल हो रहे हैं, वे शान्त होवें और फिर हे हरि ! आप अभेद चिन्तनरूप खेल खेलकर हमारी वृत्ति आपमें अनुरक्त रखें । हे हमारे प्राणपति परमेश्वर ! आप हमसे कब मिलेंगे ? मैं अपनी शक्ति करके तो आपको कैसे देख सकूँगी । क्योंकि मुझमें बहुत सी ऐसी गलत बाते हैं, जिनसे कि मैं आपको नहीं देख पाऊँगी । परन्तु हे हमारे साहिब ! एक हमारी प्रार्थना आप सुनिये कि मैं आपकी जन्म - जन्मान्तरों से दासी हूँ और आपसे विनती कर रही हूँ कि मेरी विनती को आप अवश्य सुनेंगे तथा दर्शन देंगे, ऐसी आशा है । हे प्रभु ! ऐसा दया रूपी कर्म करके आप हमारे हृदय रूपी घर में आइये, तो आप ही की इसमें शोभा है ।
“भक्ति - मुक्ति - स्पृहा यावत्, पिशाची हृदये स्थिते ।
तावद् भक्ति - सुखस्यात्र, कथमभ्युदयो भवेत् ?”
जब तक भक्ति - मुक्ति की तृष्णा पिशाचिनी हृदय में है, तब तक भक्ति का आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता ।
नृपति हरषहि साध के, जातो दरस चलाइ ।
जो सिध तो धन भाग मो, नहिं तो बड़ाई पाइ ॥ २६३ ॥
दृष्टान्त ~ एक राजा सत्संगी थे । उन्होंने सुना कि अमुक स्थान में सन्त आये हैं । तब विचार किया कि मैं सन्त के दर्शन करने चलूं । अगर महात्मा भक्ति ज्ञान रूपी सिद्धि सम्पन्न हैं, तो मेरा अहो भाग्य है और नहीं तो साधु के लिये बड़ाई तो मिलेगी, दुनियां में मान - प्रतिष्ठा होगी कि राजा उनके पास दर्शन करने जाता है ।
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