🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ १६ वां विन्दु ~*
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*ठग को उपदेश -*
दादूजी ने उसको यह पद सुनाया -
"हम पाया हम पाया रे भाई, भेष बनाय ऐसी मन आई ॥टेक॥
भीतर का यहु भेद न जाने, कहै सुहागिनि क्यों मन माने ॥१॥
अंतर पीव सौं परिचय नांहीं, भई सुहागिनि लोकन मांहीं ॥२॥
सांई स्वप्ने कबहुँ न आवे, कहबा ऐसे मह्ल बुलावे ॥३॥
इन बातन मोहि अचरज आवे, पटम१ किये कैसे पिव पावे ॥४॥
दादू सुहागिनि ऐसे कोई, आपा मेट राम रत होई ॥५॥
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अर्थ :- दंभी प्राणी संत के समान भेष बनाकर कहता है - भाइयो ! हमने प्रभु को प्राप्त कर लिया है, असंशय प्राप्त कर लिया है । प्रतिष्ठा के लिये उसके मन में यह दंभपूर्ण भावना आती है । वह अपने अन्तःकरण के भोग-राग रूप व भीतर स्थित आत्मा राम रूप रहस्य को नहीं जनता और अपने को प्रभु प्राप्ति रूप सुहाग से युक्त कहता है, परन्तु इस प्रकार करने से प्रभु तथा हमारा मन कैसे माने ?
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भीतर तो प्रभु से परिचय नही हुआ है, केवल दंभ से सांसारिक लोकों में अपने को प्रभु संयोगरूप सुहाग से युक्त कहता है । प्रभु तो कभी स्वप्न में भी हृदय में नहीं आते और कहता ऐसा है - मेरे हृदय-महल में प्रभु को प्रतिदिन बुलाता हूँ । ऐसी बातों से हमें बड़ा आश्चर्य होता है । पाखंड१ करने से प्रभु कैसे मिलेंगे ? जो सब प्रकार का अहंकार नष्ट करके राम में अनुरक्त होता है, ऐसा कोई महानुभाव ही प्रभु प्राप्ति रूप सुहाग से युक्त होता है ।
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फिर दूसरा पद भी सुनाया -
नाम रे हरि नाम रे, सकल शिरोमणि नाम रे,
मैं बलिहारी जाउं रे ॥टेक॥
दुस्तर तारे पार उतारे, नरक निवारे नाम रे ॥१॥
तारणहारा भव जल पारा, निर्मल सारा नाम रे ॥२॥
नूर दिखावे तेज मिलावे, ज्योति जगावे नाम रे ॥३॥
सब सुखदाता अमृतराता, दादू माता नाम रे ॥४॥
उक्त पद सुनाकर परम दयालु दादूजी ने कहा - जो हो गया सो तो हो गया अब भविष्य में ऐसा नहीं करना । सत्यता पूर्वक भगवान् का भजन करो, वैसे ही तुम्हारी इच्छा परमात्मा पूर्ण कर देंगे । पाखंड करना कभी अच्छा नहीं है । दंभ से प्राणी का भला नहीं होता है ।
(क्रमशः)
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दादूजी ने उसको यह पद सुनाया -
"हम पाया हम पाया रे भाई, भेष बनाय ऐसी मन आई ॥टेक॥
भीतर का यहु भेद न जाने, कहै सुहागिनि क्यों मन माने ॥१॥
अंतर पीव सौं परिचय नांहीं, भई सुहागिनि लोकन मांहीं ॥२॥
सांई स्वप्ने कबहुँ न आवे, कहबा ऐसे मह्ल बुलावे ॥३॥
इन बातन मोहि अचरज आवे, पटम१ किये कैसे पिव पावे ॥४॥
दादू सुहागिनि ऐसे कोई, आपा मेट राम रत होई ॥५॥
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अर्थ :- दंभी प्राणी संत के समान भेष बनाकर कहता है - भाइयो ! हमने प्रभु को प्राप्त कर लिया है, असंशय प्राप्त कर लिया है । प्रतिष्ठा के लिये उसके मन में यह दंभपूर्ण भावना आती है । वह अपने अन्तःकरण के भोग-राग रूप व भीतर स्थित आत्मा राम रूप रहस्य को नहीं जनता और अपने को प्रभु प्राप्ति रूप सुहाग से युक्त कहता है, परन्तु इस प्रकार करने से प्रभु तथा हमारा मन कैसे माने ?
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भीतर तो प्रभु से परिचय नही हुआ है, केवल दंभ से सांसारिक लोकों में अपने को प्रभु संयोगरूप सुहाग से युक्त कहता है । प्रभु तो कभी स्वप्न में भी हृदय में नहीं आते और कहता ऐसा है - मेरे हृदय-महल में प्रभु को प्रतिदिन बुलाता हूँ । ऐसी बातों से हमें बड़ा आश्चर्य होता है । पाखंड१ करने से प्रभु कैसे मिलेंगे ? जो सब प्रकार का अहंकार नष्ट करके राम में अनुरक्त होता है, ऐसा कोई महानुभाव ही प्रभु प्राप्ति रूप सुहाग से युक्त होता है ।
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फिर दूसरा पद भी सुनाया -
नाम रे हरि नाम रे, सकल शिरोमणि नाम रे,
मैं बलिहारी जाउं रे ॥टेक॥
दुस्तर तारे पार उतारे, नरक निवारे नाम रे ॥१॥
तारणहारा भव जल पारा, निर्मल सारा नाम रे ॥२॥
नूर दिखावे तेज मिलावे, ज्योति जगावे नाम रे ॥३॥
सब सुखदाता अमृतराता, दादू माता नाम रे ॥४॥
उक्त पद सुनाकर परम दयालु दादूजी ने कहा - जो हो गया सो तो हो गया अब भविष्य में ऐसा नहीं करना । सत्यता पूर्वक भगवान् का भजन करो, वैसे ही तुम्हारी इच्छा परमात्मा पूर्ण कर देंगे । पाखंड करना कभी अच्छा नहीं है । दंभ से प्राणी का भला नहीं होता है ।
(क्रमशः)
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