रविवार, 20 सितंबर 2015

= १८१ =

#daduji
卐 सत्यराम 卐
आपस को मारै नहीं, पर को मारन जाइ ।
दादू आपा मारे बिना, कैसे मिले खुदाइ ॥
दादू भीतर द्वन्दर भर रहे, तिनको मारैं नांहि ।
साहिब की अरवाह को, ताको मारन जांहि ॥
===================
साभार : Osho Prem Sandesh ~
*ईश्वर बाह्य सत्य नहीं !*
सत्य की खोज में स्वयं को बदलना होगा। वह खोज कम, आत्म-परिवर्तन ही ज्यादा है। जो उसके लिए पूर्णरूपेण तैयार हो जाता है, सत्य स्वयं उन्हें खोजता आ जाता है।
.
मैंने सुना है कि फकीर इब्राहिम उनके जीवन में घटी एक घटना कहा करते थे। साधु होने के पूर्व वे बल्ख के राजा थे। एक बार जब वे आधी रात को अपने पलंग पर सोये हुए थे, तो उन्होंने सुना कि महल के छप्पर पर कोई चल रहा है। वे हैरान हुए और उन्होंने जोर से पूछा कि ऊपर कौन है ? उत्तर आया कि कोई शत्रु नहीं। दुबारा उन्होंने पूछा कि वहां क्या कर रहे हो ? उत्तर आया कि ऊंट खो गया है, उसे खोजता हूं।
.
इब्राहिम को बहुत आश्चर्य हुआ और अज्ञात व्यक्ति की मूर्खता पर हंसी भी आई। वे बोले, ''अट्टालिका के छप्पर पर ऊंट खो जाने और खोजने की बात तो बड़ी ही विचित्र है। मित्र, तुम्हारा मस्तिष्क तो ठीक है ?'' उत्तर में वह अज्ञात व्यक्ति भी बहुत हंसने लगा और बोला, ''हे निर्बोध, तू जिस चित्त दशा में ईश्वर को खोज रहा है, क्या वह अट्टालिका के छप्पर पर ऊंट खोजने से भी ज्यादा विचित्र नहीं है ?''
.
रोज ऐसे लोगों को जानने का मुझे अवसर मिलता है, जो स्वयं को बदले बिना ईश्वर को पाना चाहते हैं। ऐसा होना बिलकुल ही असंभव है। ईश्वर कोई बाह्य सत्य नहीं है। वह तो स्वयं के ही परिष्कार की अंतिम चेतना-अवस्था है। उसे पाने का अर्थ स्वयं वही हो जाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
ओशो

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें