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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२९. ज्ञानी को अंग*
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*बिधि न निषेध कछु भेद न अभेद पुनि,*
*क्रिया सौ करत दीसै यौं ही नित प्रति है ।*
*काहू कौ निकट राखै काहू कौ तौ दूरि भाखै,*
*काहू सौं नेरै न दूरि अैसी जाकी मति है ॥*
*राग ही न द्वेष कोऊ शोक न उछाह दोऊ,*
*ऐसी बिधि रहै कहुं रति न बिरति है ।*
*बाहिर व्यौहार ठांनै मन मैं सुपन जांनैं,*
*सुन्दर ज्ञानी की कछु अद्भुत गति है ॥१७॥*
*ज्ञानी के क्रियाकिलाप आश्चर्यमय* : ज्ञानवस्था में ज्ञानी की कर्तव्य के रूप में न कुछ विधि रह जाती है, न कोई निषेध । न कोई भेद रह जाता है, न अभेद । तब वह साधारणतः न समझ में आने वाली क्रियाएँ भी प्रतिदिन करता रहता है ।
किसी से आत्मीयता प्रकट करता है, किसी से उपेक्षा; किसी के पास जाता है, किसी से दूर भागता है ।
उसे न किसी के प्रति राग रह जाता है, न द्वेष; न कोई शोक न उत्साह । वह अपनी जीवनपद्धति ऐसी बना लेता है कि उसकी न किसी के प्रति रति(आसक्ति) रह जाती है न विरति(वैराग्य) ।
वह लोकव्यवहार निर्वाह हेतु सब क्रियाएँ करता हुआ भी उन्हें वस्तुतः स्वप्नवत् मिथ्या ही समझता रहता है । *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इस प्रकार ज्ञानी के सभी क्रियाकलाप आश्चर्यमय हो जाते हैं ॥१७॥
(क्रमशः)
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