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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= २३ वां विन्दु दिन ५ =*
*= बीरबल को उपदेश =*
पांचवें दिन अकबर बादशाह ने सत्संग के लिये दादूजी को बुलाने बीरबल को भेजा । बीरबल ने दादूजी के पास जाकर सत्यराम बोलते हुये तथा साष्टांग दंडवत करते हुये प्रणाम किया । फिर हाथ जोड़कर सन्मुख बैठ गया और बोला भगवन् ! मुझे भेष दे दें तो अच्छा हो ।
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तब दादूजी बोले -
"भेष न रीझे मेरा निज भरतार, ता तैं कीजे प्रीति विचार ॥टेक॥
दुराचारिणी रच भेष बनावे, शील साच नहिं पिव को भावे ॥१॥
कंत न भावे करे श्रृंगार, ढिंभ पणे रीझे संसार ॥२॥
जो पै पतिव्रता हो नारी, सो धन भावे पियहिं ॥३॥
पीव पहचाने आन नहिं कोई, दादू सोइ सुहागिनि होई ॥४॥
अर्थात् भेष से विशेष लाभ नहीं होता है, प्रभु की सेवा-भक्ति करने से ही प्रभु प्रसन्न होते हैं । सच्ची भक्ति बिना प्रभु की प्राप्ति नहीं होती है और प्रभु को जब तक प्राप्त नहीं करता है तब तक प्राणी को संतोष नहीं मिलता है ।
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यही कहने के लिये दूसरा पद बोला -
"सांई बिना संतोष न पावे, भावे घर तज वन वन धावे ॥टेक॥
भावे पढ़ गुण वेद उचारे, आगम निगम सबै विचारे ॥१॥
भावे नव खंड सब फिर आवे, अजहूँ आगे काहे न जावे ॥२॥
भावे सब तज रहै अकेला, भाई बन्धु न काहू मेला ॥३॥
दादू देखे सांई सोई, सांच बिना संतोष न होई ॥४॥"
जो सच्ची भक्ति करता है, वही परमेश्वर का साक्षात्कार कर सकता है । सच्ची भक्ति बिना प्राणी को संतोष नहीं हो सकता, चाहे वह सब कुछ त्यागकर अकेला भ्रमण करे, चाहे शास्त्र पढ़े इत्यादि कुछ भी करे प्रभु की प्राप्ति तो यथार्थ साधन करने से ही होती है । उक्त उपदेश सुनकर बीरबल को प्रसन्नता प्राप्त हो गई, फिर वह बोला - अकबर बादशाह आपको सत्संग के लिये बुला रहा है, आपको बुलाने ही मैं आया था । तब जगजीवनजी को आसन पर छोड़कर अपने सात शिष्यों के साथ नगर के मध्य मार्ग से राज-सभा को चले ।
(क्रमशः)
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