🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२९. ज्ञानी को अंग*
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*जैसैं काहू देश जाइ भाषा कहै और सी ही,*
*समुझ न कोऊ व सौं कहै का कहतु है ।*
*कोऊ दिन रहि करि बोली सीखै उनही की,*
*फेरि समुझावै तब सबको लहतु है ॥*
*तैसैं ज्ञान कहैं तैं सुनत बिपरीत लागै,*
*आप आपुनौं ई मत सब कौ गहतु है ।*
*उनही के मत करि सुन्दर कहत ज्ञान,*
*तबही तौं ज्ञान ठहराइ कैं रहतु है ॥२६॥*
जैसे कोई विदेश में जाने पर वहाँ की बोली जाने वाली भाषा नहीं समझ पाता कि कौन क्या बोल रहा है ?
परन्तु वही मनुष्य, कुछ दिन वहाँ रहने पर, उनकी भाषा सीख लेता है, तब वह अपने मन के भाव उनको समझा लेता है, तथा उनकी बातें स्वयं समझने में समर्थ हो जाता है ।
उसी प्रकार, यह आत्मज्ञान आरम्भ में तो समझने में कठिन लगता है, तथा सभी अपना अपना मत ही पकड़ रखने का आग्रह किये रहते हैं ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - परन्तु जब ज्ञानी उन की ही भाषा में उसे ज्ञान उपदेश करने लगता है, तब वह आत्मज्ञान उन सामान्य कोटि के लोगों को भी समझ में आने लगता है ॥२६॥
(क्रमशः)
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