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॥ श्री दादूदयालवे नम:॥
३५३.(पंजाबी) क्रीड़ा ताल खंडनि ~
आसण रमदा रामदा, हरि इथां अविगत आप वे ।
काया काशी वंजणां, हरि इथैं पूजा जाप वे ॥ टेक ॥
महादेव मुनि देवते, सिद्धैंदा विश्राम वे ।
स्वर्ग सुखासण हुलणैं, हरि इथैं आत्मराम वे ॥ १ ॥
अमी सरोवर आतमा, इथांई आधार वे ।
अमर थान अविगत रहै, हरि इथैं सिरजनहार वे ॥ २ ॥
सब कुछ इथैं आव वे, इथां परमानन्द वे ।
दादू आपा दूर कर, इथांई आनंद वे ॥ ३ ॥
इति राग विलावल सम्पूणः ॥ २१ ॥ पद २० ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव निज स्थान निर्णय कर रहे हैं कि हे नागर ! निर्गुण ब्रह्मरूप राम का आसन भीतर हृदय स्थान ही है । वह पापों का हर्ता हरि, अविगत रूप, आप स्वयं यहाँ ही प्रकट हैं । इस काया रूप काशी मैं ही ‘वंजणां’ कहिए यात्रा कर । उस हरि की भीतर ही जाप रूप पूजा कर । यहाँ ही महादेव, मुनि, देव आदि सब निवास करते हैं, इसी में सिद्धों का विश्राम है । और स्वर्ग का सुख रम्भा, ऊर्वशी आदिकों के साथ किलोल रूप भी यहाँ ही है । इस शरीर में ही आत्मा रूप राम का दर्शन है । यहाँ आत्म - विचार रूप ही अमृत का सरोवर है । हृदय में ही सर्व का आधार स्वरूप परमेश्वर है । अमर स्वरूप अविगति का यही स्थान है । वही हरि आप सिरजनहार रूप हैं । सब कुछ इस माया के अन्दर ही है, इसमें ही अन्तर्मुख वृत्ति से आओ । इसी में परम आनन्द स्वरूप चैतन्य निवास करते हैं, परन्तु अपने अनात्म आपा अभिमान को त्याग करे, तो इस शरीर में ही सदैव आनन्द - स्वरूप के साथ अभेद होते हैं ।
नागर कहै निजाम सूं, चलो टहटड़ा गाँव ।
टूक मिलैं टापा मिटैं, बैठे गोविन्द गाव ॥
प्रसंग - इन दोनों पदों से नागर ब्राह्मण और निजाम को उपदेश किया था, जब वे काशी आदि की यात्रा करने जा रहे थे और परम गुरुदेव के टहटड़ा गाँव में दर्शन प्राप्त हुए । चरणों में नमस्कार किया और इस उपदेश द्वारा, अपनी अन्तर्मुख वृत्ति करके स्वस्वरूप का आनन्द प्राप्त किया, सम्पूर्ण बहिरंग भटकन उनकी दूर हो गई । फिर नागर और निजाम शिष्य होकर दोनों महाराज का आदेश पाकर टहटड़ा में ही निवास करते रहे ।
इति राग विलावल टीका सहित सम्पूर्णः ॥ २१ ॥ पद २० ॥
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