#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
मैं ही मेरे पोट सिर, मरिये ताके भार ।
दादू गुरु प्रसाद सौं, सिर तैं धरी उतार ॥
मेरे आगे मैं खड़ा, ता तैं रह्या लुकाइ ।
दादू प्रकट पीव है, जे यहु आपा जाइ ॥
दादू जीवित मृतक होइ कर, मारग मांही आव ।
पहली शीश उतार कर, पीछे धरिये पांव ॥
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साभार : Osho Prem Sandesh ~
एक साधक, भारत आकर उसको पता चला कि उस की कोई पुरानी मित्र, एक युवती यहां मेरी सन्यासिनी है, तो सोचा एक दिन के लिए उससे मिल जाए। उससे आठ वर्ष से मिला भी नहीं। तो उसे मिलने आ गया। उस युवती में अंतर देखे, जैसा वह जानता था, वैसी वह नहीं रही है। और जैसा उसने सोचा भी नहीं था, कभी उसके जीवन में घटेगा, उसकी उसे झलक मिली।
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वह रुका रहा तीन दिन के लिए। ध्यान करने लगा। फिर सात दिन के लिए रुक गया। फिर कल सन्यस्त हो गया; अब तो जैसे रुक ही गया। वह कल मुझे कहने लगा कि आया था मैं भारत की यात्रा पर और क्या हो गया ? यह तो मैंने सोचा ही न था। मैंने उससे कहा कि यही है भारत की यात्रा। तुझे भारत मिल गया।
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उसे अपने जन्मों का पिछले जन्मों का हिसाब भी तो पता नहीं है। कौन सी आकांक्षा उसे भारत ले आई है। कौन से अनजाने सूत्र उसे भारत ले आए। क्यों आ गया है ? कैसे संयोग बनते चले गए। और अब तो जीवन वही न होगा। अब वह कल कहने लगा, मेरी पत्नी का क्या होगा ? मेरे बच्चों का क्या होगा ? यह तो उसने कभी सोचा ही न होगा, कि मैं संन्यस्त हो जाऊंगा। इसका मुझे भी कभी सपना न था। और मैं कभी ध्यान करूंगा इसका भी मुझे खयाल न था। और अब जो हो गया है, इससे पीछे लौटने का उपाय नहीं है।
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जीवन, तुम जैसा सोचते हो, कि तुम्हारे जाने - जाने चल रहा है, ऐसा नहीं है। तुम्हारे जाने - जाने तो बहुत थोड़ा सा हिस्सा चल रहा है, जहां टिमटिमाती रोशनी है। अधिक हिस्सा तो अचेतन के अंधकार में दबा है। तुम आ गए हो। अब तुम्हें खयाल भी नहीं है कि तुम मरने को आ गए हो, मिटने को आ गए हो। तुम शायद कुछ लेने को आए हो।
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शिष्य और गुरु का गणित अलग - अलग है। शिष्य कुछ लेने आता है। और गुरु उसे समझाता है देंगे, बैठो; और फिर छीन लेता है। शिष्य आता है सुखी होने, और गुरु जानता है, जो भी सुखी होने आया है, वह दुख से न बच सकेगा। इसलिए गुरु कहता है, देंगे सुख। समझाता सुख है, देता शांति है। शांति सुख से बड़ी अलग बात है।
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शांति का अर्थ है, जहां न दुख रह जाता है, न सुख। लेकिन वही महासुख है।
निश्चित ही, तुम्हें मैं चाहूं तो अभी मार डालूं लेकिन उससे तुम्हारा पुनर्जन्म न होगा। सिर्फ मैं अदालत के चक्कर में फंस जाऊंगा। तुम नाहक मुझे उलझा दोगे, तुम तो सुलझ न पाओगे।
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नहीं, धीरे - धीरे, क्रमश: आहिस्ता - आहिस्ता तुम्हें राजी करना पड़ेगा। जिस दिन तुम राजी हो जाओगे, उसी दिन घटना घट जाएगी। क्योंकि यह मृत्यु कोई शरीर की मृत्यु थोड़े ही है, यह मृत्यु तो तुम्हारे अहंकार की मृत्यु है।
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और इस जगत में सबसे बड़ी कुशलता चाहिए अहंकार को मार डालने के लिए, क्योंकि अहंकार बहुत कुशल है। वह सब तरह से बच जाता है। तुम उसे एक जगह से मारोगे, वह दूसरी जगह खड़ा हो जाएगा। तुम उसका एक सिर काटोगे, नया सिर पैदा हो जाएगा।
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रावण की हमने कथा लिखी है, कि उसके दस सिर हैं। एक काटो, प्रतिक्षण दूसरा पैदा होता चला जाता है। उसे मारना मुश्किल है। रावण की कथा अहंकार की कथा है। अहंकार को मारना बहुत मुश्किल है। तुम इधर काटते हो, वह उधर से खड़ा हो जाता है। इधर मारते हो, वहां बन जाता है। लेकिन वह अपने को बचाए जाता है। बड़ी सूक्ष्म उसकी गतिविधि है। उसे मारने के लिए बड़ा होश चाहिए। इतना होश, कि तुम्हारे भीतर के घर में कहीं भी कोई अंधेरा कोना न रह जाए, जहां वह खड़ा हो जाए और बच जाए।
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जिस दिन तुम्हारे भीतर का दीया पूरा जलता है, रोशन होते हो तुम, कहीं कोई अंधेरा नहीं होता, उसी दिन अहंकार मर पाता है। जिस दिन गुरु देखता है कि अब घटना घट गई, उस दिन वह कह देता है, छोड़ दो, फेंक दो, अब इस कचरे को मत ढोओ। और तब एक बूंद भी खून नहीं गिरता और तुम मर जाते हो।
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अगर एक बूंद खून भी गिर जाए तो गुरु, गुरु न था; सिक्खड़ ही रहा होगा। गुरु की गुरुता यही है कि एक बूंद खून न गिरे और तुम मर जाओ। जरा सी चोट न लगे और सब विसर्जित हो जाए। गंगा सागर में गिर जाए, कहीं शोरगुल न हो।
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तुमने कभी पक्षियों को पर तौलकर आकाश में उड़ते देखा? कहीं कुछ पता भी नहीं चलता। जरा सा पंख खुल जाते हैं और पक्षी आकाश में उड़ जाता है।
तुमने कभी चीलों को तिरते देखा आकाश में - कि पंख भी नहीं हिलते ?
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ठीक ऐसी ही जीवनदशा है, जहां जरा सा भी शोरगुल नहीं होता, एक बूंद खून भी नहीं गिरता, जरा सी चोट नहीं लगती और सब सुलझ जाता है - सब ! सारी गांठें खुल जाती हैं। तुम निर्ग्रंथ हो जाते हो।
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गुरु के पास जो मृत्यु घटित होती है, वह महाजीवन है। उसके लिए तैयार होना जरूरी है। तुम्हारा इतने कहने से कि तुम मरने को तैयार हो, काफी नहीं है। तुम्हें जीने के लिए तैयार होना जरूरी है।
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और मैं तुमसे जो आखिरी बात इस संबंध में कहना चाहूंगा, वह यह है कि दुनिया में बहुत लोग हैं, जो मरने को तैयार हैं। दुनिया में बहुत कम लोग हैं, जो जीने को तैयार हैं। अगर तुम्हें चाहिए हों मरने के लिए लोग, तो बहुत मिल जाते हैं। शहीद होने के लिए बहुत पागल तैयार हैं।
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हिंदू धर्म खतरे में है, बहुत से नासमझ मरने को तैयार हो जायेंगे। इस्लाम खतरे में है, बहुत से नासमझ कूद कर मर जाएंगे। भारत पर हमला हो जाए, पाकिस्तान से झगड़ा हो जाए, चीन से हो जाए, मरने को लोग तैयार हैं। मरना तो बिलकुल आसान मालूम पड़ता है। क्यों ?
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क्योंकि तुम्हारा जीवन इतने दुख से भरा है। इस दुख में तुम जी ही नहीं पा रहे हो। इसलिए तुम कोई भी बहाना खोज कर मरने के लिए तैयार हो जाते हो। जरा सी बात हो जाती है - दिवाला निकल गया; क्या हुआ है दिवाला निकल जाने में ? जो रकम के आंकड़े तुम्हारे नाम लिखे थे बैंक में, अब नहीं लिखे। जो कागज के टुकड़े तुम्हारी तिजोड़ी में थे, अब नहीं हैं। दिवाला निकल गया, जान खोने को तैयार हो ! कूद पड़े बड़े मकान से ! आग लगा ली !
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पत्नी मर गई, मरने को तैयार हो। जिसके जीने से कभी कोई रस न पाया था, उसके लिए मरने को तैयार हो ! बच्चा मर गया; जिस बच्चे के चेहरे को देखने की तुम्हें कभी फुरसत न मिली थी, उसके लिए मरने को तैयार हो !
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