मंगलवार, 29 सितंबर 2015

२९. ज्ञानी को अंग ~ २५

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🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२९. ज्ञानी को अंग*
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*जाही ठौर रवि उद्यौत भयौ ताही ठौर,*
*अंधकार भागि गयौ गृह बनवास तैं ।* 
*न तौ कुछ बन तैं उलटि आवै घर मांहि,* 
*न तौ बन चलि जाइ कनक आवास तैं ॥* 
*जैसैं पंखी पांख टूटि जाही ठौर पर्यौ आइ ।* 
*ताही ठौर गिरि रह्यौ उड़िबे की आस तैं ।* 
*सुन्दर कहत मिटि जाइ सब दौर धूप,* 
*धोखौ न रहत कोऊ ज्ञान के प्रकास तैं ॥२५॥* 
*ज्ञान से द्वैत भ्रम का निवारण* : जिस साधक के हृदय में ज्ञानसूर्य प्रकट हो गया उस का गृह तथा वनवास के प्रति सकल भ्रम मिट गया । 
तब वह न तो वन से पुनः गृहस्थ में लौटने की बात मन में लाता है, तथा न वह सुवर्णप्रासाद में बैठा हुआ(पूर्ण गृहस्थ धर्म भोगता हुआ) वन में जाने की सोचता है । 
जैसे कोई पक्षी पंख टूट जाने पर वहीं गिर जाता है, आगे उड़ने की आशा छोड़ देता है; 
*श्री सुन्दरदासजी* कहते हैं - वैसे ही उस साधक की, ज्ञान का प्रकाश होने पर, सभी दौड़ धूप(वासनाएँ) मिट जाती हैं । उसको कोई द्वैतभ्रम(धोखा) नहीं रह जाता ॥२५॥
(क्रमशः)

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